खुद को दोहराने को तैयार इतिहास…


रघु ठाकुर

नई दिल्ली। 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद भारतीय जनता पार्टी में आंतरिक तनाव बढ़े हैं। जिन राज्यों में उन्हें विधानसभा के चुनाव में भारी बहुमत मिला था और उन राज्यों में भी जिनमें मुख्यमंत्री को नरेंद्र मोदी ने सीधे पर्ची से नाम जद किया था उसको लेकर भी आम स्वीकार्यता नहीं थी। यद्यपि विधानसभा के चुनाव के समय केंद्र के चुनाव नहीं हुये थे इसलिये भाजपा का नेतृत्व और विशेष कर राज्यों के मुख्यमंत्री पद के दावेदार प्रधानमंत्री की ताकत व प्रचारित लोकप्रियता से भयभीत थे। एक आम राय यह थी कि भाजपा को विशाल बहुमत मिलेगा और अयोध्या में रामलला के मंदिर के प्राण- प्रतिष्ठा के बाद नरेंद्र मोदी और भाजपा ने अबकी बार 400 के पार के नारा का उद्घोष किया था, इससे भी दल के भीतर व बाहर के लोग भयभीत थे। खासकर उनकी पार्टी के अंदरूनी उनके प्रतिद्वंदी लोग, परंतु उस समय वे बोलने का साहस नहीं कर सकते थे। इस बार 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद जब भाजपा घटकर 240 पर रह गयी और मोदी मिथ टूट गया तो अब अंदर के विरोधियों ने भी कुछ बोलने का साहस दिखाना शुरू किया है। भारतीय जनता पार्टी को राजस्थान और उत्तर प्रदेश से विशेष आघात लगा है। कोई भी भाजपा का नेता या आम जानकार व्यक्ति यह मानने को तैयार नहीं था की उत्तर प्रदेश में भाजपा को 60 से कम सीट मिलेंगी और इसी प्रकार राजस्थान में भी लगभग अधिकांश सीटों के पाने की उम्मीद थी, जैसा कि पिछली बार हुआ था। परंतु इन दोनों राज्यों ने न केवल नरेंद्र मोदी जी को निराश किया है, बल्कि उनके खोखले नारे 400 के पार की पोल खोल दी है।

यद्यपि नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बन गये हैं परंतु यह जोड़-तोड़ की लंगड़ी सरकार है ,जिसमें दो सहयोगी दलों की संख्या महत्वपूर्ण है और इस परिस्थिति में उनके अंदर का कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री के पद की जवाबदारी लेने को तैयार नहीं था। ऐसा बताया जाता है कि नरेंद्र मोदी ने कहा था-मैं नहीं बनना चाहता परंतु उन्हें उनके पार्टी और सहयोगी दलों ने बाध्य किया। मोहन भागवत का एक बयान अवश्य मैंने पढ़ा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि सभी लोग पूरी ताकत से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में सहयोग करें। उनका यह बयान वास्तविक था या समय की लाचारी का बयान था, यह कहना कठिन है। एक घटना तो यह महत्वपूर्ण हुई है कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात और अन्य कई प्रदेशों में राजपूत समाज ने मोदी के खिलाफ वोट दिया है जो अभी तक आम तौर पर भाजपा व संघ का समर्थक था। चुनाव के पहले से ही एक अभियान शुरू हो गया था। इसकी शुरुआत पहले गुजरात से हुयी थी और वह पुरुषोत्तम रुपाला के बयान के आधार पर हुयी थी। हालांकि श्री रूपाला ने दो बार सार्वजनिक रूप से माफ ी मांगी परंतु राजपूत समाज ने ना उन्हें माफ किया और ना ही मोदी को माफ किया तथा भाजपा के खिलाफ भी वोट दिया। उत्तर प्रदेश में भी बताया जाता है की राजपूत समाज ने आम तौर पर भाजपा के खिलाफ ही वोट दिया। कहा जाता है कि योगी आदित्यनाथ की भी इच्छा यही थी कि उत्तर प्रदेश में भाजपा ज्यादा सीटें हारे। क्योंकि उन्हें यह खतरा हो गया था कि, अगर भाजपा को विशाल बहुमत मिलता है तो उन्हें हटा दिया जायेगा। इसके भी कुछ छुट -पुट प्रमाण भी मिले हैं परंतु किसी बाहरी व्यक्ति का ज्यादा कहना संभव नहीं है। हालांकि जो घटनाक्रम हुआ है उससे यही निष्कर्ष निकलता है। चुनाव के परिणाम आने के बाद भाजपा की सांसदों की संख्या भी कम हुयी और नरेंद्र मोदी भी हारते-हारते बचे। वस्तुत: उनकी जीत मात्र 1 लाख के वोटों से हुयी है जबकि उनके लोगों का दावा 6 लाख वोटों से जीतने का था। आरंभ के चार-पांच राउंड में भी वह पीछे थे और यह एक प्रकार से उनकी गणितीय हार तो नहीं थी परंतु नैतिक हार तो है। इन घटनाओं के बाद उत्तर प्रदेश भाजपा में तनाव बढ़ रहा है और ऐसा लगता है कि इसके पीछे कहीं ना कहीं केंद्र का हाथ है। एक तो भाजपा में हार के कारणों पर चर्चा शुरू हुयी तो यह कहा गया की लोकसभा के टिकट वितरण में अमित शाह ने मनमानी की। जिन 12 लोगों को टिकट देने की सिफ ारिश योगी ने की थी उन्हें टिकट नहीं दिये गये। इससे भी योगी के मन में यह खतरा पैदा हुआ की यह उन्हें हटाने की तैयारी है, हो सकता है कि योगी ने अपनी ताकत अप्रत्यक्ष रूप से उन दोनों व्यक्तियों को कमजोर करने में लगायी हो जो उन्हें हटाने के के लिए षडय़ंत्र कर रहे थे। अभी भी ऐसा लगता है कि भाजपा में कुछ ठीक-ठाक नहीं है, विशेषत: उत्तर प्रदेश में। झारखंड के गुमला में मोहन भागवत ने बयान दिया है कि कुछ लोग भगवान बनना चाहते हैं और वह अपनी असलियत भूल जाते हैं। भगवान बनने को क्या करना पड़ता है यह भूल जाते हैं। लोगों ने उनके इस बयान को मोदी के चुनाव के पूर्व दिये गये बयान से जोड़कर देखा है जिस पर उन्होंने कहा था कि मैं भगवान के द्वारा भेजा गया हूं, यद्यपि जैविक रूप से नहीं। यानी वह अपने आप को एक प्रकार का अवतार जैसा सिद्ध कर रहे थे। दूसरी घटना हुई है कि मुख्यमंत्री योगी ने जो बैठक बुलायी थी उसमें दोनों उप- मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक शामिल नहीं हुये परंतु दिल्ली में भाजपा मुख्यमंत्री परिषद की जो बैठक उनके केन्द्रीय कार्यालय में हुयी, जिसमें नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह आदि भाजपा आला कमान शामिल हुये थे, उसमें मुख्यमंत्री योगी के साथ दोनों उप- मुख्यमंत्री भी शामिल हुये। जबकि मध्य प्रदेश राजस्थान में भी दो – दो उप-मुख्यमंत्री हैं, छत्तीसगढ़ में भी दो उप- मुख्यमंत्री हैं परंतु इन राज्यों के उप- मुख्यमंत्री इस बैठक में शामिल नहीं हुये और शायद उन्हें बुलाया भी नहीं गया हो। अकेले उत्तर प्रदेश के उप- मुख्यमंत्रियों को बुलाने का मतलब यही संकेत देता है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व और विशेषत: प्रधानमंत्री और उनकी जमात अब योगी को गिराने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ दिनों के बाद 10 विधानसभाओं के उप चुनाव उत्तर प्रदेश में होना है और तब तक शायद कोई परिवर्तन या बदलाव की बात ना हो परंतु अगर इन उपचुनाव में योगी के विपरीत परिणाम आते हैं तो यह उनके खिलाफ मुहिम के लिये एक ताकतवर तर्क होगा कि योगी आदित्यनाथ लोकसभा भी नहीं जीता पाये, ना उपचुनाव जिता पाये और भविष्य में भी होने वाले चुनावों को भी वह नहीं जिता पायेंगे। ऐसा लगता है कि भाजपा का इतिहास दोहराया जा रहा है। वैसे भी कहावत है कि इतिहास अपने आप को कुछ समय के बाद दोहराता है। स्व. अटल बिहारी वाजपेई जब प्रधानमंत्री बने थे और लखनऊ से लोकसभा का चुनाव लड़े थे तो उस समय लालकृष्ण आडवाणी जो भीतर से प्रधानमंत्री पद के इच्छुक थे। बताया जाता है कि उनके इशारे पर स्वर्गीय कल्याण सिंह ने स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई को हराने का प्रयास किया था। जो उनकी बिरादरी के मतदान केंद्र थे ,उनमें अधिकांश से स्व. अटल बिहारी वाजपेई हारे थे। यह तो उन्होंने अपनी केंद्रीय सरकार के अधिकारों का इस्तेमाल कर स्व., जगमोहन जो उस समय नगरीय विकास मंत्री थे के माध्यम से दिल्ली के शिया नेताओं के साथ एक समझौता किया। ओखला के व जामिया मिलिया पास की मस्जिद जिसके कब्जे मे बहुत सी सरकारी जमीनें थी और डीडीए ने मस्जिद के बाहर ताला लगा दिया था, वह खुलवाकर उसकी चाबी मस्जिद के इमाम साहब को सौंप दी थी। परिणाम स्वरूप लखनऊ के उनके समर्थकों ने पूरी ताकत से स्व. अटल बिहारी वाजपेई को वोट दिया और वह इसी प्रकार हारते-हारते बचे थे, जिस प्रकार 2024 में बनारस से नरेंद्र मोदी। अटल जी उस हार के खतरे को और उस षड्यंत्र को पचा नहीं पाये थे और जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भाजपा नेतृत्व के ऊपर दवाब डाला कि स्व कल्याण सिंह को हटाया जाये। श्री आडवाणी तत्कालीन अध्यक्ष स्व .कुशाभाऊ ठाकरे और उनका समूह उन्हें हटाने के पक्ष में नहीं था। तथा पहले पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक में जब अटल जी की ओर से यह प्रस्ताव आया तो उनके समकक्ष केंद्रीय नेतृत्व के सदस्यों ने कहा कि एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को कैसे हटाया जाये? पर इसका उत्तर बाद में श्री अटल बिहारी वाजपेई ने दिया और अगली बैठक में कहा कोई बात नहीं कि अगर आप मुख्यमंत्री को नहीं हटा सकते तो न हटाएं परंतु प्रधानमंत्री को तो हटा सकते हैं ? यह बात मुझे स्व. कुशाभाऊ ठाकरे ने खुद बतायी थी। और फि र स्व. अटल बिहारी वाजपेई के संदेश को समझ कर बीजेपी पार्लियामेंट्री बोर्ड ने कल्याण सिंह को हटाने का फैसला किया। हालाकि उसके बाद उत्तर प्रदेश में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ और आगामी चुनाव में स्व. मुलायम सिंह की वापसी हुयी। संभव है कि श्री मोदी की पहल पर भाजपा भी इसी प्रकार का निर्णय देर सबेर करे और अपने स्थायित्व की स्वत विरोधी बनने का काम करें। यह स्थिति दिल्ली में भी देखी जा चुकी है। जहां पर पहले मुख्यमंत्री भाजपा के स्व. मदनलाल खुराना बने थे, क्योंकि वह स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई के समर्थक माने जाते थे। अत: आडवाणी कैंप की ओर से उन्हें हटाया गया और फिर बाद में श्री साहिब सिंह वर्मा तदउपरांत श्रीमती सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री बनी परंतु फि र भाजपा की सरकार नहीं बनी। शायद इतिहास अपने आप को दोहराने के लिए तैयार है। देखना है कि भाजपा नेतृत्व, संघ का नेतृत्व और नरेंद्र मोदी और उनका समूह क्या चुनता है? वैसे भी उप्र में अब सरकारी तंत्र का दबदबा कम हो रहा है । मंत्रीमंडल भीतर से दो हिस्सों में विभाजित है। मोदी- शाह की जोड़ी ने पिछले दस वर्षों में विरोधियों की सरकारें जिस प्रकार षड्यंत्रों या अन्य असंवैधानिक तरीकों से गिरायी है,ं उसने उनकी छवि और जन समर्थन को कम किया है तथा अब अगर भाजपा सरकारें गिरेंगी तो एक बड़ा जन समूह प्रति हिंसात्मक खुशी मनायेगा । भाजपा का हिंदू कार्ड भी अब लगभग बेअसर हो रहा है। हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा भी यह मानने लगा है कि यह भाजपा का राजनैतिक प्रचार मात्र है। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में भाजपा अब कठिन दौर में है। उत्तर प्रदेश जाने का मतलब, देश से विदाई होती है, जिसकी शुरुआत इस लोक सभा से हो चुकी है।


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