शिक्षा सरकारी हो बाजारी नहीं …


रघु ठाकुर

नई दिल्ली। भारत सरकार की नई शिक्षा नीति के दस्तावेज को लगभग चार वर्ष होने को जा रहा है। बावजूद इसके इसे अभी भी नई शिक्षा नीति कहा जाता है। पिछले कुछ वर्षों, बल्कि कुछ दशकों में जो केंद्र सरकारें आयी हैं उन्होंने शिक्षा नीति में अपनी राजनैतिक जरूरत के अनुसार कुछ न कुछ बदलाव किये हैं। चूंकि यह सरकारी दस्तावेज है, इनके बनाने वाले बुद्धिजीवी आमतौर पर सरकार के अनुकूल होते हैं। दस्तावेज बनाने वाली कमेटी को सरकार ही नामजद करती है और यही सरकारें इन कमेटियों की रपट आने के बाद उसे पूरी तरह से या आंशिक लागू करने की घोषणा करती है। परंतु यह एक सुविदित तथ्य है कि कमेटियां रपट देने के पहले सरकार से मसिवरा करती हैं और उनकी सोच, दिशा-दशा को अपनी रपट में या सिफ ारिशों में समाहित करती हैं। केंद्र की भाजपा सरकार ने शिक्षा नीति के दस्तावेज तैयार करने के लिये इसरो के वैज्ञानिक कस्तूरी रंजन कमेटी का गठन किया था और नई शिक्षा नीति का दस्तावेज उनके द्वारा लागू किया है। हालांकि उन्होंने भाषा के सवाल को लेकर दो महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं। एक तो यह कि छात्रों को अपनी मातृभाषा में पढ़ाई का अवसर दिया जाये। दूसरा, हिंदी को मातृभाषा का स्थान मिले, परंतु इस समिति की रपट आने और केंद्र सरकार के कुछ कदम बढ़ाने के बाद जब राष्ट्रभाषा के सवाल पर तमिलनाडु की सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया तब पहले ही भारत सरकार पीछे हट गयी।

मैं यह नहीं कहना चाहता हूं कि हिंदी को बलात लागू करना चाहिये परंतु जब सरकारें उसकी मातृ संस्था से हिंदी-हिंदी का गीत गाती हैं तो इनका नैतिक दायित्व होता है कि अपनी ही कमेटी को लागू कराये या कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि कस्तूरी रंजन को संवाद का दायित्व सौंपते। देश की सभी सूबे की सरकारों के मुख्यमंत्रियों की सामूहिक बैठक आयोजित करते, कोई सामूहिक हल निकाल सकते, इसकी पहल करते। वैसे भी सरकार को यह चाहिये था कि रपट को स्वीकार करने से पहले सभी राज्यों की सरकारों से बातचीत करते। और उसके बाद ही घोषणा करते। वैसे भी भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक फेडरल रिपब्लिक है, जिसमें राज्यों की अपनी स्वायत्तता की भी एक संवैधानिक सीमा तक अधिकार दिये गये हैं। अगर इतना भी सरकार करती कि तमिलनाडु सरकार को कम से कम हिंदी को केंद्र से संपर्क की भाषा के रूप में स्वीकार कराने की घोषणा करती तो कुछ मामला आगे बढ़ता। अगर भारत सरकार ने यूपीएससी में सी सेट को हटा दिया होता (जिसमें फिर से अंग्रेजी की अनिवार्यता लागू कर दी।) तो भी कुछ रास्ता निकलता। परंतु, जब केंद्र सरकार राष्ट्रभाषा के सवाल पर स्वत: अपराधी है तो वह राज्यों से कहने का नैतिक अधिकार खो देती है। अगर अभी भी सरकार यह निर्णय करे कि जिस राज्य के कैडर के लिये किसी व्यक्ति का चयन होता है उसे उस राज्य की प्रादेशिक भाषा सीखना अनिवार्य होगा। अगर उत्तर भारत या हिंदी भाषी क्षेत्र के जो लोग दक्षिण भारत के राज्यों के लिये चयनित होते हैं, तो वे संबंधित राज्य की भाषा को सीखेंगे तो फिर दक्षिण भारत के अधिकारियों को भी हिंदी या राष्ट्रभाषा सीखने के लिये कहना तार्किक होता।

नई शिक्षा नीति के देश पर क्या प्रभाव पड़े हैं इसका आंकलन कुछ घटनाओं से हो सकता है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के यूडी आईएसई वर्ष 2023-24 की रपट सरकार के तमाम दावों की पोल खोल देती है जिसमें बताया गया है कि देश में बिना छात्र वाले स्कूलों की संख्या लगभग 13 हजार हो गयी है जबकि इन स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों की संख्या 26 हजार से बढ़कर 31981 हो गयी है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि बगैर छात्रों वाले स्कूलों में लगभग 32 हजार शिक्षक नियुक्त किये हैं, जिन पर औसतन सालाना 2 हजार करोड़ हो रहे हैं? वहीं दूसरी तरफ, देश में 110271 स्कूल ऐसे भी हैं जहां मात्र एक ही शिक्षक है और वहां छात्रों की क्या पढ़ाई होती होगी यह अकल्पनीय है। अगर सरकार नई शिक्षा नीति के बाद स्कूलों में पर्याप्त शिक्षकों की व्यवस्था नहीं कर पायी तो शिक्षा व्यवस्था की हालत समझी जा सकती है। अभी भारत सरकार ने सनातन ज्ञान परंपरा के ऊपर काफ ी जोर दिया है और इसके माध्यम से स्कूलों से लेकर विवि तक सनातन ज्ञान परंपरा के पढ़ाने के नाम पर शिक्षक या व्याख्याता भेजे जा रहे हैं। यह सनातन ज्ञान परंपरा कहीं न कहीं धार्मिक परंपराओं से जुड़ी है और यह एक प्रकार से अघोषित धार्मिक शिक्षण भी है। बुद्ध धर्म भारतीय धर्म है और जिसकी ज्ञान परंपरा हिंदू ज्ञान परंपरा से कुछ पृथक है। इसी प्रकार जैन धर्म भी भारतीय है और उसकी ज्ञान परंपरा कुछ पृथक है। क्या इन धर्मों की ज्ञान परंपरा को सनातन ज्ञान परंपरा में शामिल किया गया है ? मेरी जहां तक जानकारी है कि शिक्षण संस्थाओं में सनातन ज्ञान के नाम पर हिंदू धर्म की ज्ञान परंपराओं को पढ़ाया जा रहा है। वैसे भी धार्मिक संस्थान सरकार के द्वारा आयोजित करना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है। अच्छा हो कि हिंदू धर्म के संस्थान अपनी ज्ञान परंपरा को धार्मिक संस्था के माध्यम से पढ़ायें वरना देर- सवेर देश में यह भी विवाद का एक कारण बनेगा।

फिर इतिहास, जिसे अंग्रेजों ने विकृत किया, उसे सुधारने के नाम पर बदला जा रहा है और अतीत की त्रुटियों को स्वीकार कर सुधारने की बजाय उन्हें इतिहास के पन्नों से हटाया जा रहा है। अंग्रेजों ने इतिहास की गलत ढंग से व्याख्या कर उसे विकृत किया था, अब आज की सरकार इतिहास के तथ्यों को हटाकर या छिपाकर इतिहास के पन्नों को फ ाड़ रही है। वि.वि. जो उच्च शिक्षा के केंद्र रहे हैं उन्हें सरकार आत्मनिर्भरता के नाम पर बाजार के संस्थान बना रही है। अब भारत सरकार वि.वि. अनुदान आयोग वि.वि. के निर्माण के लिये अनुदान की बजाय कर्ज दे रहा है, जिसे उन्हें एक समय अवधि तक ब्याज सहित चुकाना होगा। स्वाभाविक है कि अभी विवि में जो कुलपति या शिक्षक हैं वे केलव शिक्षण या शोध का काम करते हैं। मैं मान लेता हूं कि उनमें कुछ कमियां हैं (शोध के नाम या नौकरियों के नाम पर) शिक्षक व अन्य विवि के अधिकारी वांछित परिणाम नहीं दे पा रहे। इसमें उनकी पदलिप्सा और धनलिप्सा बड़ा कारण है। शायद इसलिये वे अपवाद छोड़कर रीढ़ विहीन जैसे हो गये हैं, जो सरकारों के या तंत्र के सामने घुटने टेकना तो दूर दंडवत हो गये हैं। जब मैं यह देखता या सुनता हूँ कि केंद्रीय विवि के कुलपति (कुलगुरु) जब शिक्षा मंत्रालय के सचिव की कुर्सी के सामने घंटों बैठे रहते हैं, उससे आदेश लेते हैं, उनकी अनुनय , विनय करते हैं तो शिक्षा जगत का कितना पतन हुआ है, इसका ये प्रमाण है। उस दौर की याद आती है जब शिक्षा मंत्री तो दूर प्रधानमंत्री भी विवि के कुलपति को बुलाने का साहस नहीं करता था। परंतु पैसे के नाम पर और भ्रष्टाचार से बने कुलगुर अपना आत्म सम्मान खो चुके हैं। एक तरफ सरकार सनातन ज्ञान परंपरा का प्रचार करती है, पर वह यह भूल जाती है कि भारत के अतीत में शिक्षक का दर्जा राजा से भी बड़ा होता था। कई बार ऐसा लगता है कि यह सरकार सनातन ज्ञान परंपरा के नाम पर जो अच्छी परंपरायें थीं, उन्हें छोड़कर केवल अन्य प्रकार की परंपराओं को ज्ञान परंपराओं के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है।

यूजीसी की सिफ ारिश में अभी हाल ही में केंद्र और शिक्षामंत्री श्री धर्मेंद्र प्रधान ने मसौदा तैयार किया है। 10 वर्ष के शिक्षण अनुभव की योग्यता को हटाया जा रहा है तथा उद्योग जगत और कारपोरेट जगत के बगैर शिक्षा के अनुभव के कुलपति भी नियुक्ति किये जा सकते हैं। या कुलपति का पद अब शैक्षणिक पद नहीं बल्कि व्यापारिक पद हो जायेगा और यह सरकार आत्मनिर्भरता के नाम पर शिक्षण संस्थानों को शिक्षा का बाजार बनाने के लिये कर रही है। सरकार भारतीय संविधान के कल्याणकारी राज्य की कल्पना के अनुसार शिक्षा देने के अपने दायित्वों से हट रही है। यह एक प्रकार से विश्वविद्यालय शिक्षा के संपूर्ण निजीकरण की शुरुआत है। निजी विवि तो पहले भी थे, परंतु अब सरकारी विवि को भी निजी जैसा ही बना दिया जायेगा। यह आरएसएस के समान कुलगुरुओं में लेटरल एंट्री है। नाम सरकारी होगा, काम बाजारू होगा। शायद इस सरकार के लिये नई शिक्षा नीति के माध्यम से खुले बाजार के हाथ सौंपना है। यह घटना अकेले शिक्षा की बर्बादी को ही नहीं, बल्कि भारत सरकार के विकास के दावों की भी पोल खोलती है। जहां बजट की राशि और टैक्स की दरें आमजन के लिये बढ़ रही है और दूसरी तरफ शिक्षा को बाजार का उत्पाद बनाया जा रहा है। अब यह देश के जनमत पर निर्भर है कि क्या वह अपने देश की शिक्षा को सरकारी चाहता है या बाजारी।


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