रघु ठाकुर
नई दिल्ली। जैसा कि अनुमान था कि भारत -पाकिस्तान के बीच का अघोषित युद्ध कुछ ही दिनों में बंद हो जायेगा, यद्यपि यह भारत की जनता की इच्छा नहीं थी, और न ही किसी भी समझदार व्यक्ति की, क्योंकि आजादी के बाद से लगातार देश पाकिस्तानी सीमा से तनाव-हिंसा और युद्ध झेलता रहा है। इसलिये इस बार लोगों की यह इच्छा थी कि भारत- पाकिस्तान के बीच इस संघर्ष का स्थाई हल निकल जाये। इसका मौका भी पाकिस्तान ने स्वयं दिया था जब उसने पहलगाम में 26 निर्दोष पर्यटकों को आतंकवाद का शिकार बनाया। यह आतंकवादी पाकिस्तान की सेना के ही अघोषित अंग जैसे थे और उसके कई प्रमाण भी मिले। पहलगाम में जो हथियार या गोली बगैरा मिले थे वे भी पाकिस्तानी सेना के थे। भारत के द्वारा प्रत्युत्तर दिये जाने के बाद जो आतंकवादियों के ठिकाने तबाह हुये और जो आतंकवादी मारे गये वे भी पाकिस्तानी सेना के ही थे। क्योंकि,पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों के द्वारा उनके दफ नाने और सेना की सैल्यूट के जो फोटोग्राफ स्वत: पाक सेना ने जारी किये थे, उन्हें सारी दुनिया ने देखा है। पाकिस्तान का पहलगाम आतंकी हमले में हाथ होने का यह स्पष्ट प्रमाण था, जिसे झुठलाने की कोई जुर्रत पाकिस्तान नहीं कर सकता। इसलिये जब पाकिस्तान ने सुरक्षा परिषद की समिति की बैठक में इस मामले को उठाया तो सुरक्षा परिषद की समिति के सदस्यों को वह संतुष्ट नहीं कर सका और समिति ने कोई प्रस्ताव नहीं किया।

दुनिया के दो छोटे-छोटे देशों ने, जिसमें तुर्कि, व एक अन्य देश ने ही पाकिस्तान का समर्थन किया, बाकी पूरी दुनिया ने पाकिस्तान को अपराधी माना और भारत का समर्थन किया। सुरक्षा परिषद की समिति में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी। दुनिया के तमाम शक्तिशाली देशों ने भारत के पक्ष में समर्थन किया और पाकिस्तान की आलोचना की। यह एक प्रकार से भारत के द्वारा की गई आक्रामक प्रतिक्रिया का समर्थन था। यहां तक कि दुनिया के इस्लामी देशों के संगठन ने भी पाकिस्तान का समर्थन नहीं किया और एक प्रकार से भारत के पक्ष का ही समर्थन किया। इतना बड़ा विश्व जनमत इससे पहले कभी भी भारत के साथ नहीं था। इसलिये देश को उम्मीद थी कि भारत इस बार निर्णायक हल करेगा और 70 वर्ष पुरानी त्रृटि में सुधार कर पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेगा। यह इसलिये भी जरूरी था क्योंकि आतंकवादियों का प्रवेश द्वार पीओके ही है तथा भारत की सीमा से सटे होने की वजह से पाकिस्तान इसका इस्तेमाल एक आधार के रूप में करता है। लोगों को इस बार इसलिये भी निर्णायक हल की उम्मीद थी क्योंकि लोगों में यह जुमला चलता था कि मोदी है तो मुमकिन है…। नरेन्द्र मोदी भी जिस प्रकार पिछले तीन दशकों से आतंकवाद, पीओके, कश्मीर समस्या पाकिस्तान को लेकर पूर्ववर्ती सरकारों को कोसते रहे हैं, जो कि उचित भी था, इसलिये लोगों को उम्मीद थी कि इस बार नरेन्द्र मोदी अवश्य कुछ निर्णायक कदम उठायेंगे। घटना के बाद जिस तत्परता से नरेन्द्र मोदी ने बैठकें कीं और गोली के बदले गोला जैसे जुमले फेंके उससे देश बहुत आशान्वित था। परंतु जिस प्रकार अचानक 10 मई की शाम को भारत के डीजीएमओ की पाकिस्तान के डीजीएमओ से फोन पर बात हुयी और युद्ध विराम का निर्णय हुआ, वो न केवल लोगों को आश्चर्यजनक या उम्मीद के परे था, बल्कि नरेन्द्र मोदी की बहादुरी के प्रति निराशा पैदा करने वाला था। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह तो विभाग सम्हालने के बाद से ही यह जुमला बोलते रहे हैं कि मैंने सेना को खुली छूट दे दी है…। पहली गोली हम नहीं चलायेंगे, लेकिन यदि पहली गोली दुश्मन की ओर से चलती है तो उसका कड़ा जवाब देंगे…।
पहलगाम में आतंकी हमले के बाद श्री मोदी विदेश के दौरे को रद्द कर भारत आये तो उन्होंने भी यही बयान दिया कि हमने सेना को कह दिया है कि कब, कहां, कैसे करना है यह उसको तय करना है…। इसका मतलब है कि इसके पहले सेना को आतंकवादी हमलों का प्रतिकार करने की छूट नहीं थी और पिछले 10 वर्षों से रक्षामंत्री सेना को गुमराह कर रहे थे। उन्होंने सेना के बंधे हाथ खोले नहीं थे और बंधे हाथ तो पांच मई को नरेन्द्र मोदी ने खोले हैं। यह लोकतांत्रिक परम्परा थी कि प्रधानमंत्री सारे घटनाक्रम को राष्ट्रपति को ब्रीफ करते, सर्वदलीय समिति की जो बैठकें बुलाई गयीं उनमें शामिल होते और देश के नाम संदेश जारी कर तथ्यों को रखते। परंतु फि र एक बार प्रधानमंत्री ने यह बताने का प्रयास किया है कि जनतंत्र और जनतांत्रिक परम्पराये, संविधान और संवैधानिक परम्परायें उनके लिये कोई मायने नहीं रखतीं। सर्वदलीय बैठक में दिल्ली में रहते हुये भी प्रधानमंत्री का शामिल न होना क्या जनतंत्र का मजाक उड़ाना नहीं है? प्रधानमंत्री और उनका एनडीए मात्र 42 प्रतिशत मतों का प्रतिनिधित्व करता है। 58 प्रतिशत उनके और एनडीए के पक्ष में नहीं है। परंतु देश के संसदीय विपक्ष ने और छोटी बड़ी सभी पार्टियों ने बिना शर्त आवश्यक कार्रवाई करने के लिये भारत सरकार और सेना का समर्थन किया। सारी दुनिया में भारत की एकजुटता का संदेश गया। जबकि पाकिस्तान दुनिया में विभाजित नजर आया। यह एक बड़ी जनतांत्रिक उपलब्धि थी। इसके बाद भी प्रधानमंत्री ने देश की संवैधानिक परम्परा और प्रतिपक्ष का सम्मान नहीं किया। वे भूल गये कि जिन श्रीमती इन्दिरा गांधी को वे और उनकी मातृ संस्थायें तानाशाह कहती हैं, उन्होंने भी 1971 में सारे विपक्ष को साथ लेने का प्रयोग किया था। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व से भी सम्पर्क कर सहयोग मांगा था तथा जयप्रकाश जी को भारत का पक्ष प्रस्तुत करने के लिये विश्व भ्रमण पर भेजा था। पाकिस्तान के डीजीएमओ और भारत के डीजीएमओ के बीच 10 मई की शाम पांच बजे से ही युद्ध विराम हो गया। 12 मई को फि र एक बार टेलीफोन पर औपचारिक चर्चा हुयी और सहमति हो गयी। इतनी घटनाओं के बाद 12 मई को प्रधानमंत्री ने पहली बार अपना मुंह खोला और देश के समक्ष कुछ बिंदु प्रस्तुत किये। हालांकि उनके आठ मुद्दों में कुछ भी नया नहीं है, बल्कि लगभग वही सब बातें हैं जो सरकारी पक्ष की ओर से पहले भी कही जाती रही थीं। युद्धविराम की घोषणा के समय और बाद में 12 मई को प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि अब अगर कोई हमले की घटना होगी तो उसे युद्ध माना जायेगा। अभी तक विधिवत युद्ध की घोषणा नहीं हुयी थी, जो हो रहा था वह अघोषित युद्ध था। यह भी आश्चर्यजनक था कि 10 मई के युद्धविराम की घोषणा के बाद तथा 12 मई को प्रधानमंत्री के उपदेशात्मक बयान के बाद भी पाकिस्तान की ओर से युद्धविराम का उल्लंघन हुआ है। 10 मई को युद्धविराम के बाद भी रात में पाक सेना ने भारत की सीमा में हमले किये और 12 मई को भी मीडिया के अनुसार कुछेक स्थानों पर युद्धविराम का उल्लंघन हुआ। यह युद्ध विराम वास्तव में युद्ध विराम है या युद्ध विश्राम है यह भविष्य के गर्भ में है। प्राचीनकाल में सेनायें दिन भर लड़ती थीं, रात में विश्राम करती थीं, अगले दिन की लड़ाई की तैयारी के लिये। यह युद्ध विराम भी कहीं ऐसा ही तो नहीं है जो कुछ दिन के बाद फिर नये रूप रणनीति व ताकत के साथ शुरू हो।
इस युद्धविराम के बाद एक और नई बहस शुरू हुई है। वह यह कि भारत ने युद्धविराम का फैसला स्वेच्छा से किया या अमेरिका जैसी विदेशी शक्ति के प्रभाव में। अमेरिका के बड़बोले राष्ट्रपति ने तो सार्वजनिक रूप से बयान दिया है कि उन्होंने रात भर भारत पाकिस्तान को समझाया। कुछ इस आशय की खबरें भी आयीं कि अमेरिका ने भारत को व्यापार रोकने की धमकी दी। हालांकि, भारत सरकार की ओर से इसका औपचारिक खंडन किया गया है। ट्रम्प व श्री मोदी के बीच कौन सच्चा कौन झूठा की बहस होगी तो एक भारतीय होने के नाते मैं मोदी को सच्चा मानूंगा। यह भी खबरें मीडिया में आई हैं कि पाकिस्तान ने परमाणु हमले की तैयारी की थी और उसकी सूचना के बाद भारत ने युद्धविराम का निर्णय किया। श्री मोदी के बयान से कि हमें परमाणु युद्ध की धमकी न दें ,भी इस सूचना की पुष्टि जैसी है। मैं नहीं जानता कि यह कितनी सही है। परंतु अगर यह सही है तो फिर भारत के राजनेताओं को यह भी मालूम होना चाहिए कि गांधी-लोहिया-और उनके अनुयायी के रूप मैं यह लिखता कहता रहा हूं कि परमाणु हथियार के बाद भारत पाकिस्तान बराबरी के मुकाबले में आ गये हैं। इसके पूर्व परम्परागत युद्धों में भारत लगातार जीता है, ताकतवर सिद्ध हुआ है। श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री अटल बिहारी वाजपेई से श्री मोदी तक परमाणु परीक्षण को भारत की महान ताकत बताने वाले संघ को इसका उत्तर देना चाहिए। हालांकि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने जिस प्रकार अचानक पाकिस्तान को युद्ध के बीच हजारों करोड़ का कर्ज मंजूर किया और आईएमएफ की मीटिंग में भारत अकेला अलग थलग रह गया। दुनिया के सभी सदस्य देशों ने कर्ज मंजूरी को स्वीकृति दी। क्या यह अंतरराष्ट्रीय दबाव बनने का कारण नजर नहीं आता? विश्व शक्तियां केवल अपने स्वार्थ या देश हित को ही लड़ती हैं किसी दूसरे को नहीं। जो प्रधानमंत्री दिन रात विश्वनेता-विश्वगुरु का खिताब लिए घूमते हैं उन्हें समझना चाहिए कि दुनिया के देश अपने राष्ट्रीय हितों से चलते हैं न कि दूसरे के। तारीफें तो व्यापार के सौदा पटाने की चीज रहती हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता। हालांकि एक सच्चाई यह भी है कि देश इस बार श्री मोदी को सच्चा नहीं मान रहा। इसकी वजह भी है कि जब हमला करने का फैसला भारत सरकार के निर्णय के आधार पर हुआ तो युद्धविराम का फैसला डीजीएमओ कैसे कर सकता है ? पाकिस्तान के लिए तो यह माना भी जा सकता है क्योंकि वहां सेना का नियंत्रण है। परंतु भारत में तो सारे निर्णय राजसत्ता ही करती है। यह बात किसी के गले नहीं उतर रही कि भारत सरकार और प्रधानमंत्री की सहमति के बगैर भारत के डीजीएमओ केवल एक पाकिस्तान के समकक्ष अधिकारी के फोन पर युद्धविराम तय करे। देश के आम लोगों में यह शक है कि भारत सरकार और प्रधानमंत्री ने अपनी नाक ऊंची दिखाने के लिए यह रास्ता निकाला कि पाक सैन्य अधिकारी फोन करें और भारत का सैन्य अधिकारी उसे मान ले। अगर यह सैन्य अधिकारी का निर्णय है फिर तो यह भारत की राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध विद्रोह जैसा होगा।
प्रधानमंत्री को देश को यह बताना चाहिये कि यह युद्धविराम क्यों स्वीकार किया गया? क्या भारत का लक्ष्य पीओके को वापस लेना नहीं है? वो कौन से कारण हैं जिनके चलते यह युद्धविराम स्वीकार किया, जबकि सरकार के मुताबिक और भारतीय मीडिया के मुताबिक भारत इकतरफ ा जीत रहा था। यहां तक कि मीडिया के एक बड़े हिस्से के द्वारा तो यह भी बताया जा रहा था कि पाकिस्तान कांप रहा है, वहां की सेना का मुखिया छिप गया है, वहां के सांसद रो रहे हैं, वहां के प्रधानमंत्री घबड़ा रहे हैं, पाकिस्तान प्यासा मरने वाला है आदि -आदि। मैं मान लेता हूं कि भारत का योग्य और ईमानदार मीडिया यह खबरें सच ही दे रहा था तो उस मीडिया को बताना चाहिये कि एक सप्ताह के संघर्ष व युद्ध से भारत को क्या हासिल हुआ? पाकिस्तान के100 लोग मरे। भारत के 40 जवान शहीद हुये या 26 हत्याओं का बदला 100 को मारकर लिया। ये सब खबरें उत्साह व युद्धकाल की हो सकती हैं परंतु इनसे कोई निर्णायक हल नहीं निकलता। भारत की सेना ने अपने गौरवमय इतिहास को कायम रखते हुये फिर एक बार निर्णायक युद्ध की ओर कदम बढ़ाया था पर भारत के कमजोर राजनीतिक नेतृत्व, असफ ल कूटनीति, अदूरदर्शी विदेश नीति, व्यक्तिवाद ने जीते हुये देश व सेना को उसी प्रकार की पराजय की ओर ढकेल दिया है जैसा नेहरू के जीवनकाल में यूएनओ को प्रस्ताव देकर दिया गया था। 1965 में ताशकंद में समझौता स्व लालबहादुर शास्त्री ने किया था, 1971 में स्व. श्रीमति इंदिरा गांधी ने शिमला समझौता किया था व स्व. अटलजी के कार्यकाल में संसद पर हमले के बाद आर-पार के जुमले का हश्र हुआ था। वही अब श्री मोदी के कार्यकाल में गोली बनाम गोला का हश्र हुआ है। सेना जीतती है और राजनीति हारती है। यह भारत की कूटनीति और विदेश नीति की हार है, जिसे देश निरंतर झेलने को अभिशप्त है।