प्रधानमंत्री: मुख्य न्यायाधीश के यहां पूजा में शामिल होने के मायने


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रघु ठाकुर

नई दिल्ली। भारत के मुख्य न्यायाधीश के घर पर गणपति की स्थापना की गई थी और 11 सितंबर को उनके घर पर गणपति पूजा में प्रधानमंत्री पहुंचे। समाचार पत्रों में उनके मराठी वेशभूषा और मराठी टोपी लगे हुए फोटो छपे। महाराष्ट्र के ग्रामीण अंचलों में ग्रामीणजन सफेद टोपी पहनते हैं जो एक जमाने की गाँधी टोपी के समान होती थी। इस सफेद टोपी के पहनने के दो कारण संभव हैं। एक-तो यह कि महात्मा गांधी के प्रभाव में आजादी के आंदोलन के दिनेां में गांधी टोपी को पहनना गांधीवादी होने का और आजादी के आंदोलन के समर्थक होने का प्रतीक था। दूसरे विदर्भ और महाराष्ट्र के बड़े इलाके में कपास पैदा होता था,कपास गर्म मौसम के क्षेत्रों में पैदा होता है और इसलिये ये कपास से बने सूत की सफेद टोपी,धोती लोगों को पहनना सुविधाजनक था। प्रधानमंत्री के भारत के मुख्य न्यायाधीश के घर पर जाने के बाद देश में विभिन्न प्रतिक्रियायें आई हैं और जो अपने-अपने राजनैतिक सोच के आधार पर बंटी हुई हैं। प्रधानमंत्री के समर्थकों ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के घर पर उनके कार्यकाल में हुई रोजा इफ्तार पार्टी में तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश के शामिल होने वाले फोटो जारी किये है, जिनमें वे प्रधानमंत्री निवास में इफ्तार पार्टी में शिरकत कर रहे हैं। श्री मोदी के समर्थकों ने यह भी तर्क दिया है कि अगर मुख्य न्यायाधीश इफ्तार पार्टी में जा सकते हैं तो मुख्य न्यायाधीश के यहां गणेश पूजा में प्रधानमंत्री क्यों नहीं जा सकते? आलोचक पक्ष ने यह टिप्पणी की है कि इस घटना से प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के बीच कुछ पक रहा लगता है। कुछ ने यह भी लिखा चूंकि सी.जे.आई. शीघ्र ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं, इसलिये वह भविष्य की संभावनायें तलाश रहे हैं।

भारत की सरकारों ने आज से नहीं बल्कि श्री मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले कांग्रेस के जमाने से ही कुछ संवैधानिक संस्थायें, यथा मानव अधिकार आयोग, प्रेस काउंसिल आफ इंडिया आदि के मुखिया के पद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिये वैधानिक रूप से आरक्षित कर दिये गये तथा इनका चयन सरकारें ही करती हैं। पिछले एक डेढ़ दशक में जिस प्रकार मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहे लोगों ने राज्यपाल,राज्यसभा, आदि राजनैतिक पद ग्रहण किये हैं उससे इस धारणा को बल मिला है कि कोई भी व्यक्ति अपने स्वार्थ के या पद लोलुपता के लिये अपनी संवैधानिक मर्यादाओं व सम्मान को छोड़कर किसी भी सीमा तक गिर सकता है। यह एक आम राय बनी है। मुख्य न्यायाधीश महोदय गणपति पूजक हैं और उनके यहां पर परंपरानुसार प्रतिवर्ष गणपति पूजा होती होगी। अगर पिछले वर्षों में भी उन्होंने प्रधानमंत्री को दावत दी होती या प्रधानमंत्री जी उनके यहाँ आये होते तब शायद यह शंका बलवती नहीं होती। परंतु यह मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के आखिरी समय अचानक और आश्चर्यजनक रूप से हुई घटना है। इसलिये भी लोगों को शंका करने का अवसर मिला। 
कुछ प्रधानमंत्री समर्थक मित्रों ने तो एक मुस्लिम न्यायाधीश का हवाला देकर लिखा है कि उन्हें जज बनाया गया फिर राज्यसभा में लाया गया और पुन: उनकी जज के रूप में नियुक्ति हुई। यह घटना भी सही है और ऐसी अनेकों और भी घटनाओं का उदाहरण दिया जा सकता है। कांग्रेस सरकारों के जमाने में भी न्यायपालिकाओं को अपने अनुकूल बनाने के लिये हर प्रकार के हथकंडों का इस्तेमाल होता रहा है, यह निर्विवाद सत्य है। जस्टिस खन्ना, जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा और ऐसे ही कितने उदाहरण दिये जा सकते हैं। परंतु ऐसे उदाहरण देने वाले जाने-अनजाने यही सिद्ध करते रहे हैं कि मुख्य न्यायाधीश के घर की गणेश पूजा नहीं वरन गणेश परिक्रमा हो रही है। याने उद्देश्य कुछ हासिल करना है सरकार को भी और न्यायाधीश को भी। कई मित्रों ने यह संदेह व्यक्त किया था कि चूंकि 13 सितंबर को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जमानत पर निर्णय होना है और यह न हो सके, ऐसा निर्णय हासिल करने के लिये प्रधानमंत्री गणपति पूजा में गये। हालांकि 13 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी आशा के विपरीत केजरीवाल को जमानत दे दी। 
मैं इस पूरे विवाद को योजनाबद्ध अपने-अपने हित साधक और एक अर्थ में व्यक्ति के प्रति मूल अविश्वास और अनास्था के रूप में देखता हूं। नि:संदेह अनेकों मुख्य न्यायाधीशेां और न्यायाधीशों ने सत्ता के समक्ष समर्पण किया है परंतु इस आधार पर न्यायाधीश पर उंगली उठाना उचित नहीं है। क्योंकि न्यायाधीश व्यक्ति होता है वह आयेंगे व जायेंगे परंतु न्यायपालिका जो एक संवैधानिक संस्था है,अगर उसकी जनविश्वसनीयता कम होगी तो यह लोकतंत्र के लिये बड़ा आघात होगा। अपनी सारी कमियों के बावजूद भी कम से कम अभी तक देश की जनता का विश्वास न्यायपालिका पर बना हुआ है और न्यायपालिका को वह संविधान और अपने अधिकारों के रक्षक के रूप में देखती है। देश की संसद पर विश्वास घटा है,यह इससे ही सिद्ध हो जाता है कि सारे प्रचार व प्रसार के बावजूद भी पक्ष व विपक्ष को मिलाकर लगभग 60 प्रतिशत लोग ही मतदान करते हैं। यानि शेष 40 प्रतिशत लोगों का विश्वास संसद से टूट चुका है। सरकारें तो मुश्किल से देश के 30-40 प्रतिशत के समर्थन से बनती हैं और एक अर्थ में वे देश के अल्पमत की प्रतिनिधि है। फिर जो सत्ता पक्ष व प्रतिपक्ष के मतदाता हैं आमतौर निजी बातचीत में,वे भी अपने दलों से संतुष्ट नहीं है और एक प्रकार से लाचारी में मतदान करते हैं।
प्रशासन सत्ता के गुलाम जैसा व्यवहार करता है और वह पहले से ही अविश्वसनीय है। यानि संविधान के दो खंभे विधायक और कार्यपालिका तो पूर्व में ही हिल चुके हैं। अब अगर न्यायपालिका का खंभा भी हिलेगा तो अराजकता का दौर होगा, जैसा कि हम लोग  बंगलादेश व दुनिया के अन्य देशों में देख रहे हैं।  न्यायाधीश की भी अन्यों के समान कई भूमिकायें होती हैं, वह न्याय देने का संवैधानिक अधिकारी है,वह परिवार में अपने परिवार का हिस्सा है, वह समाज में अपने समाज का हिस्सा है,अगर वह धर्मावलंबी है, अपने धर्म को मानने वाला है। एक नागरिक के रूप में उसे मतदान का अधिकार है और वह अपने विचारों के अनुकूल वह करता है। तो न्याायाधीश के मिलने जुलने में क्या खतरा है? न्यायाधीश को न्याय के महलों के नाम के बंदी ग्रहों में क्यों बंद रहना चाहिये? दरअसल, ब्रिटिशकाल में एक लीगल एथिक्स नाम की संहिता बनी थी। जो आज भी वकालत पेशे के लिये एक व्यावसायिक आदर्श मानी जाती है। हालांकि एथिक्स के नियमों का पालन वकील साहवान अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं। फीस व केस लेने की गुणवत्ता के बारे में तो नहीं ही करते। मैं श्री वाईके चंद्रचूड़ के ऊपर न कोई शक करता हूं न आरोपित करता हूं, जब तक कोई घटना उस आरोप को सिद्ध न करे। मैं एक इंसान के रूप में इंसान के प्रति आस्थावान हूं और हर अहिंसक, सिविल नाफरमानी के माध्यम से परिवर्तन करने वाले को मानव मात्र के प्रति आस्थावान होना चाहिए। 
जजों को मेरी राय में और अधिक सामाजिक बनना चाहिये। मेरी तो यह शिकायत है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश केवल सत्ता केंद्रों तक या अपने घरों या चेम्बर तक सिकुड़कर रह जाते हैं तो उन्हें समाज की वास्तविकता का ज्ञान नहीं हो पाता। अगर न्यायाधीश महोदय भी यह परंपरा शुरू करें कि तीज-त्यौहारों पर वर्ग विशेष के लोगों के अलावा सामान्य लोगों को अपने बंद किलों के दरवाजे खोलें, उनसे मिले जुलें, संवाद करें तो वे ज्यादा बेहतर न्याय दे सकेंगे।  कानून के शब्द होते हैं परंतु उसे लागू करने वाले का नजरिया महत्वपूर्ण होता है। मुझे याद है कि जब श्री मार्कंडेय काटजू सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे और उनके सामने एक गरीब तृतीय या चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी का मामला  अपने बकाया की सुनवाई के लिये आया था। वह व्यक्ति 25-30 साल से अपनी थोड़ी सी राशि के लिये लड़ रहा था। श्रम न्यायालय, जिला न्यायालय, उच्च न्यायालय और इन तीनों की लंबी अवधि की यात्रा पूरी कर वह सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा था। उस गरीब के पास कोई वकील खड़ा करने की आर्थिक क्षमता नहीं थी और सरकार के विभागीय अधिकारियों की तरफ से महाधिवक्ता के पैनल के बड़े-बड़े वकील थे। जस्टिस काटजू ने फ़ाईल को देखा और सरकारी वकील से पूछा कि आप लोगों को कितनी 
फीस मिली है। एक व्यक्ति को कुछ हजार रुपया नहीं देने के लिये तंत्र संगठित हो जाता है और सरकारी पक्ष की वकालत पर वकीलों पर लाखों रुपया खर्च हो जाता है। एक मिनट में ही उन्होंने बुजुर्ग से कहा कि बाबा तुम जीत गये और तुम्हें तुम्हारा पैसा मिलेगा। यह है न्यायाधीश की मानवता जो उसे कानून की किताब से नहीं बल्कि पारिवारिक संस्कार, उनकी सामाजिकता और समाज से अंतर संवाद से मिलती है। पहले यानि 1950 से लेकर लगभग 1980 तक शीर्ष न्यायपालिका का सामाजिक संवाद ज्यादा था और इसीलिये उनका दृष्टिकोण मानव अधिकारों, सामान्य व्यक्तियों, गरीबों के प्रति भी संवेदनशील था। मैं न्यायपालिका के आचरण के कई उदाहरण दे सकता हूँ।
मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं केवल व्यक्ति के प्रति मूल अविश्वास के खिलाफ  हूं, जब तक कि वह आरोपित सिद्ध न हो जाए। अन्यथा मैं न्यायपालिका का कटू आलोचक व भुक्त भोगी भी हूं। आजकल न्यायापालिका केवल मीडिया में छपने के लिये लगभग कथावाचकों के समान उपदेशक बन गई हैं और अपने वर्ग के प्रति यानि एलिट क्लास (श्रेणी वर्ग) के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। अभी कुछ दिन पूर्व न्यायिक अधिकारियों के संगठन की ओर से एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत हुई और मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में ही एक बड़ी बेंच ने देश के 28 मुख्य सचिवों को नोटिस देकर आने का आदेश दिया। इतना ही नहीं यह भी कहा कि अगर इस तारीख को मुख्य सचिव हाजिर नहीं होंगे तो सर्वोच्च न्यायालय गैर जमानती वारंट जारी करेगा। यानि गिरफ्तारी का आदेश देगा। क्या ऐसा कोई आदेश जो अप्रत्यक्ष रूप से धमकी भरा हो देना न्याय संगत है? क्या इसके पूर्व इतनी सक्रियता, कठोरता या धमकी का इस्तेमाल न्यायपालिका ने किसी अन्य समूह के लिये किया है? पश्चिम बंगाल के डॉक्टर   महिला से बलात्कार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सीबीआई की जांच हो रही है। पिछले लंबे समय लगभग 98 दिन से जूनियर डॉक्टर्स हड़ताल पर थे और लाखों मरीज परेशान हुए और कितनों की मौत भी हो गई। स्वत : न्यायालय ने आदेश दिया कि 10 सितंबर की शाम तक डॉक्टर साहिवान काम पर उपस्थित हों और अगर वह उपस्थित होते हैं तो उन पर कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं होगी। इसके बावजूद भी जूनियर डॉक्टर्स का संगठन हड़ताल पर है और काम पर वापिस नहीं आया। परंतु न्यायपलिका चुप है। क्या यह संविधान में वर्णित समानता के अनुसार व्यवहार है ? 
अंत में मैं प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के श्री चंद्रचूड़ जी के घर पर गणपति की पूजा में शामिल होने को तब तक सामान्य घटना मानूंगा जब तक मुख्य न्यायाधीश सत्ता के किसी कृपा के आकांक्षी न सिद्ध न हो और उनके निर्णय न्याय के मान्य सिद्धांतों के विपरीत सत्ता के बचाव के न हों। साथ ही मैं न्यायपालिका की समग्र भूमिका को व्यवस्था संरक्षण के रूप में पक्षपाती महसूस करता हूँ और मानता हूँ।   


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