पुस्तक समीक्षा: ‘झरती रौशनी’


सामाजिक सरोकार, रूप और कर्म का खूबसूरत चित्रण ‘झरती रौशनी’

   रेखा पंकज

लखनऊ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविताओं पर कविता क्या है नामक अत्यंत महत्वपूर्ण निबंध लिखकर कविता की वर्तमान अर्थवत्ता को रेखांकित किया है। कविता कवि की वह अन्तध्र्वनि है जिसको जब लफ जों का जिस्म मिल जाता है तो वह काव्य रूप में जीवंत हो उठता है। डॉ. तरूणा माथुर लिखित काव्य संग्रह ‘झरती रौशनी’ भी कमोबेश उस समवेत ध्वनि का आभास है जहां कवि और कविता दोनों ही सार्थक एवं प्रभावी बन अपना असर छोड़ जाते है।सीधे कवि के हृदय से निकलकर पाठक के हृदय में बिना किसी रोक-टोक के जगह पा लेते है। नवोदित कवयित्री डॅा. माथुर इस संग्रह में अपने कविता संसार के माध्यम से सामाजिक सरोकार भरे जीवन के तमाम पहलुओं को कुरेदती है तो स्त्री रूप और जीवन कर्म का बहुत खूबसूरती से चित्रण करती है। स्त्री विमर्श, सौन्दर्य बोध, प्रकृति चित्रण, सामाजिक परिवेश, सांस्कृतिक समन्वय डॉ. तरूणा माथुर की इस काव्य संग्रह के मुख्य आकर्षण है। कुल अड़तालिस कविताओं की क्रमबद्ध श्रंृखला में प्रकाशित कवयित्री की यह पहली पुस्तक है। भाव के धरातल से देखा जाये तो कवयित्री के अन्तर्मन की आवाज, इसके माध्यम से, पाठक तक निर्बाध और निरंतर गति से पहुंचती है। कविताओं की क्रमोत्तर संख्या के साथ लेखिका अपनी लेखनी के साथ व्यस्क और अपनी सोच में एकाग्र चिंतन का अहसास कराती है।

‘जीवन है तेरी मेरी कहानी’ कविता में उनकी स्वयं की पीड़ा जन- साधारण की पीड़ा बन कर उभरती है जैसे :

”….. जो खो दिया उसका क्यों गिला किया ?

ओस की बूंद सा यह जीवन

कब धूप की चमक से उड़ जाएगा।

सोचा यह हो जाए, चाहा वह मिल जाए,

कब सांसे थम जाएं ?

किसे पता कब चला जाएं ?

निस्सार है यह जीवन सपनों की कहानी,

जीवन है तेरी- मेरी कहानी”

यूं तो कविता में छंद का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। जो छंद जानता है वही छंद मुक्त लय में लिख सकता है, वरना छंद मुक्त कविता में शिल्प लय की कमी हो जाती है। ऐसी कविता गद्यात्मक हो जाती है। झरती रौशनी में कहीं- कहीं छंद की परिपक्वता अस्पष्ट एवं अनावृत सी लगती है। लेकिन भावपक्ष की मजबूती और प्रत्येक कविता की सरलता आपको सम्मोहित होने से नहीं रोक पाती। किसी ने सही कहा है कि कवि की दुनिया सामान्य लोगों की दुनिया से कुछ भिन्न किस्म की होती है। जहां सामान्य आदमी अपनी सीमित दुनिया में सिमटा- सकुचा होता है, वहीं कवि की दुनिया अत्यंत विस्तार लिये होती है। चुप्पी की संस्कृति से दूर भावनाओं के कोलाहल में डूबता- उतरता, विरोध के मुखर आकाश में विचरता, संसार में रहकर भी वीतरागी सा जीवन जीता। दरअसल वह जानता है कि सब कुछ सहन कर जाना अपराधिक संस्कृति को पोषित करता है, समाज को सही दिशा देने का काम मौन होकर नहीं, मुखर होकर करता है।  तरूणा भी उसी संसार की कवियित्री हैं, यह संग्रह कम सकम मुझे तो ऐसा ही आभास देता है। इस कविता संग्रह में कुछ कविताओं का आकार काफ़ी बड़ा है फिर भी भाव विन्यास में तनाव या विखराव नहीं मिलता। अतएव यह श्रेयस्कर प्रतीत होता हैं। 

जैसे : “गहराई का नहीं कोई छोर”, “वो लड़की”, “भूल गए कैसे हम”, “मॉ” “अपने में सब अधूरे”, “गुजरे हुए पल”, “मैं जब गर्भ में था”, “बचपन की सहेलियां”, “मातृत्व का पहला अंकुर”, “गुजरे हुए पल” आदि। यकीनन कुछ कविताएं बहुत मार्मिक बन पड़ी हैं। जैसे “मॉ”,जिंदगी तराजू है, परिवर्तन मेरे भीतर का समुद्र आदि- आदि:

” मेरे भीतर का समुद्र,

मेरी सोच की चट्टानों पर प्रहार करता,

तिल- तिल तोड़ता रेतीला बना देता,

और किनारे पर

आकर बिखरा देता।

फिर कितनी ही कद्वितयां

समुद्र में गोते खाकर

आती- ठहरती,

और रेत पर कुछ

पद चिन्ह छोड़ जाती…”

”एक इश्क तेरा भी, में तरूणा शायरी में इश्क के अंदाज को बयां करती है:

” इश्क की यूं नुमाइश ठीक नहीं जानिब

नूर ए आब लगे जर्रे जमाने को तू

जन्मों से ईश्वर के प्यासे फिरा करते महफिल में

चाहे कबूल करया नेस्तनाबूंद ख़ुदी को

निकल इश्क के भ्रम जाल से जालिम

हर शख्स यहां गुल और गुलिस्तॉं लगे।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था, जैसे- जैसे सभ्यता विकसित होती जाएगी, कवि कर्म कठिन होता जाएगा। इस कठिन कवि- समय में तरूणा ने हमारे समय के दारुण यथार्थ को कविता की सबसे विश्वसनीय इकाई में व्यक्त कर ये साबित कर दिया कि अभी कविता का दिवस अवसान का समय नहीं आया। कविता का काव्यत्व और लयत्व अभी हिंदी कविता में बचा हुआ है। सही भी है कि अगर कविता को बचाना है तो उसके प्राणतत्व लयात्मकता को बचाना होगा। केंदीय विद्यालय बड़ौदा में कला शिक्षिका के पद पर कार्यरत डॉ. तरूणा माथुर कलायात्रा पत्रिका की संपादिका भी है। कला- साहित्य में विशेष रूचि ने उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा है। अपने कलात्मक अंदाज को गाहे बगाहे अलग-अलग विधाओं में दिखा कर वह अपनी रचनात्मकता का परिचय देती आई है। यह कविता संग्रह उनके सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव का आइना है। ‘झरती रौशनी’ की ये पंक्तियां उनके अक़्श को उकेरती है और सवाल करती है।

“प्रकाश के सप्त रंगों की रंगीनियत सा

किसी एकाकीपन के भॅंवर को

चीरती ये झरती रौशनी के पार कौन हो तुम ?

… लेखिका: डॅा. तरूणा माथुर  कविता संग्रह : ‘झरती रोशनी’ प्रकाशक: हमरूह पब्लिकेशन हाउस मूल्य: रूपये 199


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