किसी भी समाज में किशोर नई संभावना और भविष्य की उम्मीद होते हैं। कोई भी समाज उनके बिना तरक्की की राह पर नहीं चल सकता। एक युवा का असमय विछोह परिवार, समाज व देश के लिये असहनीय टीस है। किसी भी मौत को आंकड़ों की नजर से नहीं देखा जाना चाहिये। इसकी टीस उन मां-बाप से पूछी जानी चाहिये, जिन्हें वह जीवनभर का दर्द दे जाता है। किसी किशोर को भले ही यह आत्मघात समस्या से पार पाने का सरल रास्ता नजर आता हो,लेकिन इसकी कीमत परिवार-रिश्तेदार व समाज ताउम्र चुकाता है।
बहरहाल, इस बीच राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वह रिपोर्ट विचलित करती है, जिसमें उल्लेखित है कि पिछले एक दशक के दौरान देश में आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या 70 फीसदी बढ़ी है। जहां वर्ष 2011 में करीब साढ़े सात हजार छात्रों ने आत्महत्या की थी, वहीं वर्ष 2021 में आत्मघाती कदम उठाने वाले छात्रों का आंकड़ा 13 हजार से अधिक हो गया। वह भी तब कि जब हर आत्महत्या को दर्ज किया हो। अकसर देखा जाता है कि सामाजिक व कानूनी झमेलों से बचने के लिये आत्महत्या को प्राकृतिक मौत दर्शाने की भी कोशिश होती है। यह भी कि इन मामलों के आंकड़े ईमानदारी से दर्ज किये गये हों। बहरहाल, ये दुखद ही कि कुछ फूल खिलने से पहले ही सदा-सदा के लिये मुरझा जाते हैं। प्रतियोगिता परीक्षाओं में गला-काट स्पर्धा में फंस चुके ऐसे संभावनाशील छात्रों के मरने की खबरें राजस्थान के कोटा से आती हैं। जहां शेष भारत से सुनहरे सपने लेकर लाखों छात्र-छात्राएं प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के लिये आते हैं। मन के अनुकूल वातावरण न पाकर और भविष्य की आशंकाओं से घिरे कुछ छात्र मौत को गले लगाने को अंतिम विकल्प के रूप में देखने लगते हैं। कहीं न कहीं अपने परिजनों की उम्मीदों का बोझ ढोते ये छात्र इस बात से भयभीत होते हैं कि अपने मध्यम व निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के लाखों के खर्च के साथ क्या वे न्याय कर पायेंगे? दरअसल, देश में इंजीनियर-डॉक्टर बनने की जो भेड़चाल चल पड़ी है, उससे छात्रों को ये डर सताने लगता है कि वे यदि ये न बन सके तो उनका जीवन व्यर्थ हो जायेगा। हर बच्चा अपने आप में विशिष्ट होता है, उसकी विशिष्टता की पहचान करके उसी क्षेत्र में उसे आगे बढऩे का अवसर मिले। अपनी रुचि के विषयों में छात्र विशिष्ट करने में सफल होते हैं। वहीं दूसरी ओर आभासी दुनिया की भीड़ में ये छात्र अलग-थलग रहते हैं। जहंा इनका संवेदनशील ढंग से व्यावहारिक मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं होता। वहीं हम मानसिक रूप से इन बच्चों को इतना सशक्त नहीं बना पाते कि ये विषम परिस्थितियों में टूटकर न बिखरें। दरअसल, अब वे शिक्षक गिनती के ही रह गये हैं जो छात्रों के सर्वांगीण विकास को अपनी प्राथमिकता बनाते हों। शिक्षा के व्यवसायीकरण के चलते कहीं न कहीं कक्षा में होने वाली पढ़ाई से इतर उन्हें कोचिंग्स की जरूरत बता दी जाती है। वहीं दूसरी ओर दूरदराज के इलाकों से अन्य भाषा में पढ़ाई करने वाले छात्रों पर अंग्रेजी में पढ़ाई का दबाव भी होता है। उनकी काफी ऊर्जा अंग्रेजी सीखने में व्यय होती है। फिर वे महंगे कॉन्वेंट स्क2लों से निकलने वाले छात्रों का मुकाबला नहीं कर पाते। पिछले दिनों देश के शीर्ष शिक्षण संस्थानों एम्स व आईआईटी में हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के छात्रों की आत्महत्या करने की खबरें आई हैं, जो अपने पाठ्यक्रम के साथ कदमताल नहीं कर पाये। इस साल ही कोटा में करीब 24 छात्रों का आत्महत्या की राह चुनना इस संकट की भयावहता को दर्शाता है। लेकिन इसके बावजूद इस समस्या को मनोवैज्ञानिक और संवेदनशील ढंग से संबोधित करने की कोशिश होती नजर नहीं आती। कहीं न कहीं बच्चों के दिमाग में यह भय जरूर रहता है कि मां-बाप ने लाखों रुपये खर्च करके हमें इस मुकाम तक पहुंचाया है, ऐसे में विफल होने पर हम उन्हें क्या जवाब देंगे? इस विकट समस्या के समाधान में अभिभावकों की बड़ी भूमिका हो सकती है। परिजनों-मित्रों द्वारा दिया गया संबल ही उन्हें आत्मघाती कदम उठाने से रोक सकता है।