नई दिल्ली। हमारे देश के कुछ दलित बुद्धिजीवियों व स्वघोषित आंबेडकरवादियों ने अमेरिकी तर्ज पर भारत में डायवर्सिटी के सिद्धांत को अपना आदर्श लक्ष्य घोषित किया है तथा वे इसे क्रांतिकारी सिद्धांत बताने का प्रयास करते रहे हैं। दरअसल अमेरिका में 1960 के दशक में जब रंग भेद और नस्लभेद के विरुद्ध काले-नीग्रो लोगों का आंदोलन बहुत तीव्र हुआ था तथा जब आंदोलन और हिंसा अमेरिका के शहरों में भी फैली थी तब तत्कालीन राष्ट्रपति जॉनसन ने एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग की सिफ ारिशों के आधार पर यह विविधता का कानून बनाया गया था और इस कानून के माध्यम से सभी क्षेत्रों में काले नीग्रो को भी समाहित किया गया था। यह एक प्रकार से भारत के आरक्षण की पद्धति जैसा ही था, जिसे बाद में अमेरिकी समाज में फ रमेटिव एक्शन्य या सकारात्मक कदम्य के रूप में जाना गया।

हमारे देश के जो कुछ दलित बुद्धिजीवी अमेरिकी परस्त हैं वे अमेरिका के इन कदमों को बहुत क्रांतिकारी कदम मानते हैं और दूसरी तरफ उनके मन मस्तिष्क में कहीं भारत के अतीत या इतिहास के प्रति गहरी नफ रत घर कर गयी कि अतीत में भारत में उठाये गये इनसे बेहतर कदमों को वे उद्वत करना भी उचित नहीं मानते। महात्मा ज्योतिबा फु ले ने जातिवादी भेदभाव एवं अंध विश्वास के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन चलाया था। स्वामी विवेकानंद ने जातिवाद पर जबरदस्त हमला किया था तथा 20वीं सदी के शूद्रों की सदी निरूपित किया था। डॉ. राममनोहर लोहिया ने पिछड़े पावे सौ में साठ का नारा दिया था, परंतु हमारे वे दलित बुद्धिजीवी, फु ले, विवेकानंद, डॉ. लोहिया की चर्चा नहीं करते। वे बुद्ध की चर्चा कभी- कभार ही करते हैं और वह भी लाचारी में, क्योंकि आंबेडकर जी जीवन के अंतिम दिनों में बौद्ध हो गये थे। ये बुद्धिजीवी पेरियार की चर्चा भी नहीं करते हैं, जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा किया था। बाबा साहब की चर्चा भी वे शायद सामाजिक लाचारी से करते हैं। ये दलित बुद्धिजीवी सूट-बूट को क्रांति का प्रतीक मानते हैं तथा यह उद्धत करते हैं गांधी की लंगोटी अतीतजीवी थी। इसकी खिलाफ त में बाबा साहब ने सूट-बूट और टाई पहनी, जिसे गांधी ने त्याग दिया था। इन मित्रों की इस स्थापना का कोई तार्किक आधार नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत का पिछले हजार, डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास जाति प्रथा की विकृतियों व जुल्मों से भरा पड़ा है।
भारत की इस जाति प्रथा ने देश की बहुसंख्यक आबादी को जन्मना छोटा बना दिया। उसे शूद्र कहकर उत्पादन या सेवा के कार्य तक सीमित कर दिया तथा उत्पादन के लाभ के मालिक स्वयं बन बैठे। मनु स्मृति में शूद्र के जीवन का उद्देश्य केवल सवर्ण की सेवा करना ही बताया गया है। हाथ से काम करने वालों तथा सेवा कार्य वाली बड़ी आबादी को गुलामों से भी बदतर बना दिया गया। अतीत के इन अन्यायों के प्रति गुस्सा होना भी चाहिये परंतु भारत में हुये उन प्रयोगों की चर्चा भी ईमानदारी से करनी चाहिये, जिनमें न केवल जाति प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाया गया था वरन जिन्होंने तथा कथित ऊँची जातियों के अपने ही लोगों के अन्याय व दमन को भी सहा था। जाति प्रथा पर चोट जिस प्रकार कबीर ने की थी वह कोई मामूली हमला नहीं था। संत रविदास ने जाति के विरुद्ध जो दार्शनिक प्रश्न खड़े किये थे, उसका कोई उत्तर सवर्ण समाज नहीं दे सका था। वह भी कोई मामूली घटना नहीं थी। बाबा साहब नि:संदेह सूट-बूट और टाई पहनते थे, परंतु जीवन के आखिरी दौर में जब वह बौद्ध बने और जब उन्होंने दीक्षा ग्रहण की तब वे सूट-बूट में नहीं थे, बल्कि परंपरागत बौद्ध वेशभूषा में थे। इस घटना का हमारे दलित बुद्धिजीवी किस दृष्टिकोण से विश्लेषण करेंगे। मैं नहीं जानता, परंतु हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिये कि भाषा और भूषा भी एक प्रकार की गुलामी या मानसिक दास्तां की प्रतीक हो सकती है।
अंग्रेजी काल में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की भाषा थी और आज भी है। अंग्रेजी उस ब्रिटिश साम्राज्य की भाषा थी जिसने भारत को गुलाम बनाया था और आज अंग्रेजी उस विश्व व्यापार संगठन की भाषा है जो केवल आर्थिक साम्राज्यवाद की प्रतिनिधि संस्था है। इसी प्रकार सूट-बूट और टाई अंग्रेजियत तथा ठंडे मुल्कों की नकल है। चूंकि उस समय ब्रिटेन या यूरोप व अमेरिका में अध्ययन के लिये तथा वकालत जैसे कार्यों के लिये सूट-बूट अपरिहार्य थे, इसलिये बाबा साहब को भी सूट-बूट पहनना पड़ा था। वस्त्रों का संबंध भी जलवायु एवं उत्पादन के साथ होता है। यूरोप व अमेरिका ठंडी जलवायु वाले भूभाग हैं, जहां पर सूट-बूट, टाई आदि आवश्यक हैं परंतु भारत एक गर्म जलवायु वाला देश है, जहां वर्ष में चार माह छोड़कर भीषण गर्मी और उमस होती है। ऐसे मौसम में सूट-बूट उपयुक्त नहीं है। दक्षिण भारत की अधिकांश आबादी जिनमें बहुसंख्यक दलित व पिछड़े भी शामिल हैं लुंगी पहनते हैं। हमारा ग्रामीण समाज जिसमें बहुंसख्यक दलित व पिछड़ा आदिवासी है, धोती पहनता है। हमारे दलित बुद्धिजीवी मित्र जब काले अमेरिकी लोगों की चर्चा करते हैं तब वे यह भूल जाते हैं कि काले लोग विद्रोह के समय अपनी वेशभूषा में थे। अन्य सभी लोग भी अपने ही देश की वेशभूषा में लड़े हैं। भारत में कपास का उत्पादन पर्याप्त था और इसलिये हमारे देश में मौसम के अनुकूल धोती, कुर्ता, लुंगी आदि सुविधाजनक पोषाक थी। क्रांति वस्त्रों से नहीं बल्कि मानसिक परिवर्तन से होती है। ब्रिटिश काल में हमारे तमाम देशी शासक राजा-महाराजे और बड़े नौकरशाह सूट-बूट पहनकर ही अंग्रेजों की जी-हुजूरी करते थे। इसके विपरीत खादी और देशी वेशभूषा अंग्रेजों और अंग्रेजियत के विरोध का प्रतीक थी। दलित उद्योगपति, पूंजीपति, नौकरशाह व सत्ताधीश बनें यह हमारे लिये सुखद होगा, परंतु आदर्श लक्ष्य तो तभी पूरा होगा जब कोई छोटा या बड़ा न रहे सब समान हों।
क्रांति का मतलब ऐसे परिवर्तन से हो जो वर्तमान विषमता को समाप्त करे। गरीबी, भुखमरी, शोषण और पीड़ा के विशाल समुद्र में चंद सभ्रांत अमीरी और ताकत के टापू खड़े करने से विशाल दलित समाज को कोई फ ायदा नहीं होने वाला। दरअसल, यह पूँजीवादी षडयंत्र है। यह नई दृष्टि दलितों में विषमता को आदर्श लक्ष्य बनाने की चाल है। आदर्श व्यवस्था वह होगी जिसमें बूट पर पॉलिश करने वाले और बूट की उत्पादक कंपनी का मालिक बाटा, दोनों की दैनिक समान होगी। जिन बुद्धिजीवी मित्रों के मन में बराबरी की बजाय बड़े बनने की इच्छा है, वे जन्मना दलित हो सकते हैं परंतु दिमाग से शोषक, सवर्ण जैसे ही है। मनुवाद विषमता का भाव है और समानता का भाव व कर्म समाजवाद है। अगर अमेरिका की अमीरी के टापू बनाने की नकल के बजाय यह दलित बुद्धिजीवी देश के आम दलितों से जुड़कर उन्हें परिवर्तन के लिये प्रेरित एवं शिक्षित करें, जिसका प्रयास बाबा साहब ने किया था, और वोट से इस प्रकार की क्रांति संभव है। हमारे यह दलित, बुद्धिजीवी, गांधी को कितनी ही गाली क्यों न दें, परंतु मैं कहना चाहूँगा कि गांधी को गाली देना, आंबेडकरवाद नहीं है। गांधी और आंबेडकर के बीच रिश्तों को समझने के लिये उस दौर की परिस्थितियों को भी समझना होगा। बाबा साहब स्वत: भी अपने अमेरिकी आग्रहों का इस्तेमाल अपने दलित तबके लिये अधिक से अधिक अधिकार हासिल करने के लिये करते थे, वह कलेक्टिव बार्गेनिंग्य (सामूहिक सौदेबाजी) के चतुर प्रयोगकर्ता थे। वे कुछ समय के लिये कारखाना बंदी का आह्वान तो करते थे, परंतु कारखानों को सदा-सदा के लिये बंद कर रोजगार के जरिया या आमदनी के मूल स्त्रोतों को बंद नहीं करते थे।
आज दुनिया में अनेक छोटे-छोटे मुल्क हैं जहां एक ही रंग के लोग ज्यादा भी और उसी रंग शासक भी हैं। ऐसे कुछेक मुल्क काले रंग वालों के भी हैं और गोरे रंग वालों के भी हैं। इन मुल्कों में वैसा ही रंग पूंजीवाद है, जिस प्रकार की कल्पना भारत में दलित पूँजीवादी मित्र करते हैं, परंतु पूँजीवादी व्यवस्था के कारण हर वर्ष करोड़ों लोग भूख और बीमारियों से मौत के शिकार होते हैं। इथोपिया के शासक भी काले रंग के हैं और वहां भूख से मरने वाले लाखों लोग भी काले रंग के ही हैं। पूँजीवाद की यही नियति है। गांधी के आग्रह और बाबा साहब की जिद से जो पूना पैक्ट के नाम से समझौता हुआ उसका यह परिणाम है कि आज कोई दलित आदिवासी या पिछड़े वर्ग का व्यक्ति भारत की 150 करोड़ से अधिक आबादी जो सैकड़ों साल से जातीय शोषण और दमन की परंपरा की शिकार थी, उसमें से मुख्यमंत्री बन सकता है। अगर गांधी के आग्रह और बाबा साहब के आग्रह का संभावित स्वरूप पूना पैक्ट के रूप में सामने नहीं आया होता तो क्या यह स्थिति संभव थी। हो सकता था कि दलित जातियों के या अन्य पिछड़ी जातियों के दक्षिण अफ्रीकी जैसे छोटे-छोटे मुल्क बनते, उनके सत्ताधीश भी उन्हीं में से होते। परंतु क्या वे सुरक्षित होते ? आज समूचा भारत एक जनतांत्रिक देश है जिसमें आज नहीं तो कल कोई न कोई दलित जो दूरदृष्टि और मानसिक व्यापकता से परिपूर्ण होगा, भारत के शासन सूत्र को संभालेगा। इसलिये भारत को दलित कैपिटिलिज्य की जरूरत नहीं बल्कि समाजवादी भारत की जरूरत है। ये मित्र सामाजिक क्रांति कहते हैं वह सामाजिक क्रांति नहीं है, बल्कि भ्रांति है।
दरअसल इन दलित बुद्धिजीवियों को अपने आपको दलित बुद्धिजीवी घोषित करना व कहलाना भी जातीय शोषण है। ये अच्छी तनख्वाह पाने वाले एलीट क्लास के बुद्धि बेचू हैं, जिनका कोई संबंध अब आम दलित के जीवन से नहीं है। इन्होंने अपना वर्ग परिवर्तन कर लिया है। नये पूँजीवादी विश्व की नई तकनीकों का भरपूर सुख भोग रहे हैं। वे अपने आप को दलित इसलिये लिखते हैं ताकि उनकी मार्केटिंग हो सके और जिन दलितों का पिछले कई सदियों से सवर्णों ने शोषण किया था, उन दलितों का अब ये भावनात्मक शोषण कर सकें। इसमें कोई संदेह नहीं है कि माँ का पेट का दर्द असली होता है, दाई की तो सांत्वना भर होती है। इसी तर्क के आधार पर जिन लोगों का जन्म दलित घरों में हुआ है, जिन्होंने जन्म से ही उस भीषण विषमता व छुआ-छूत की पीड़ा को भोगा व देखा है, उनका अनुभव तथा उसका चित्रण ज्यादा वस्तुपरक व यथार्थ भरा होता। मैं मानता हूँ कि भोगे हुए यथार्थ की तुलना, कष्ट की मानसिक कल्पना से नहीं हो सकती। परंतु इस विषमता व कष्टों को मिटाने का संकल्प केवल जन्मना जातीय आधार पर निर्णायक नहीं हो सकता। संवेदनाएं किसी विचारवान व्यक्ति में हो सकती है और उन्हें जाति या वर्ण की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। गांधी की जीवन शैली संयमित, सादा जीवन या कहा जाये तो एक हद तक कष्टप्रद जीवन, अपने संडाश की स्वतरू सफ ाई और उसे आश्रम के नियमों का हिस्सा बनाना, क्या दलितों के साथ तारतम्य स्थापित करना नहीं था ? क्या उनकी पीड़ा से उन्हें मुक्ति दिलाना जातीय आधारित समाज को उसकी ओर प्रेरित करना तथा हर व्यक्ति को अपना शूद्र स्वत बनाने की पहल एक महत्वपूर्ण प्रयोग था।
आज 21वीं सदी में मशीन या तकनीक से दलित, शूद्र को मैला साफ करने के काम से मुक्ति के प्रयास हो रहे हैं। यह जरूरी व उचित भी है। इसमें शूद्र निम्न कार्य की बाध्यता से मुक्त तो होगा परंतु सवर्ण समाज जातीय के श्रेष्ठता के भाव से मुक्त नहीं होगा। गांधी तो एक साथ दोनों लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रयासरत थे। एक तरफ दलित को सफाई के बाध्यकारी कार्य से मुक्ति दिलाना और दूसरे सवर्ण को स्वत: ही सफाई का कार्य कर जातीय श्रेष्ठता के मान को ही समाप्त करना। यह दो तरफा परिवर्तन था जिसमें दोनों की मुक्ति का प्रयास था, जो जन्मना श्रेष्ठी भाव के बंदी हैं, तथा जो सफाई करने को लाचार हैं, दोनों की मुक्ति। यह याद रखना होगा कि तकनीक का प्रयोग बराबरी दे सकती है पर मानसिक बराबरी तो, मानसिक क्रांति से ही होगी।