दिव्या श्री.
लखनऊ । रफ्ता,रफ्ता कदम चाल चलते हुये साप्ताहिक समाचार पत्र ‘द संडे व्यूज़ ‘ पाठकों के दिलों में राज करता चला गया। किसी भी खबर को ईमानदारी से लिखने और सभी वर्ग के लोगों की समस्याओं को प्रमुखता से उठाने की वजह से ये अखबार अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहा। 10 वर्ष का समय कब बीता और कब आपका राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र ‘ ’11 वें वर्ष में प्रवेश कर गया,मालूम नहीं चला। सफर लंबा है, लेकिन तमाम झंझावतों को झेलते हुये,आम जन की आवाज बनकर तेजी से अखबार उभरा और हमारी कोशिश रहेगी कि ‘शोषित वर्ग ‘ की आवाज को मजबूती के साथ उठाते रहें। मुझे आज भी याद है 17 अगस्त 2014 के शुभ दिन ‘द संडे व्यूज़ ‘के पहले अंक का प्रकाशन हुआ, जिसमें अखबारी दुनिया के वरिष्ठ व कनिष्ठ सहयोगियों ने शिरकत की। आशियाना में किराये के मकान से शुरु हुआ ये सफर कई पड़ावों को पार करते हुये आज अपना ठौर बनाने में कामयाब रहा। इसमें ‘नीम करौरी बाबा ‘का विशेष योगदान है।
सभी जानते हैं कि बलिया क्रांतिकारियों की धरती रही है। स्वतंत्रता संग्राम का पहला बिगुल बलिया में ही बजा था। हमें गर्व है कि बलिया हमारी मातृभूमि है। बलिया से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. पं. वृंदावन मिश्र हमारे बाबा हैं, जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुये अपना पूरा जीवन देश के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। देश को आजादी दिलाने में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। उनकी यही भावना लेकर समाचार पत्र निकालने का विचार आया और उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुये ‘द संडे व्यूज़ ‘ का प्रकाशन किया गया। अब राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र ‘द संडे व्यूज़’ सोशल मीडिया की दुनिया में और यू-ट्यूब पर ‘स्पेशल स्टोरी’ को लेकर अपनी अलग पहचान बना लिया है। मुट्ठी भर कर्मठ सहयोगियों और स्वजनों की कड़ी मेहनत के दम पर हमलोग पत्रकारिता जगत में आगे की ओर बढ़ रहे हैं।
आपलोगों को बता दें कि ‘द संडे व्यूज़ ‘अखबार की शुरुआत आशियाना में किराये के मकान से की गयी । सभी वर्ग के लोगों से ‘स्वेच्छा ‘से सहयोग राशि देने की अपील करते हैं ताकि इस अखबार का प्रकाशन होता रहे। हालांकि 10 वर्ष के सफर में कई तरह की अड़चनें भी आयीं। मेरे हमसफर संजय श्रीवास्तव ने सुनी सबकी लेकिन मानी अपनी अंतरात्मा की। धीरे-धीरे अखबार का कारवां बढ़ता गया और अर्थ संकट भी गहराया लेकिन जनता का जो विश्वास ‘द संडे व्यूज़’ के प्रति बना था, उसे जिंदा रखना भी जरूरी था। ‘उम्मीद’ और ‘विश्वास’ की इस लड़ाई में हमारे दोनों बेटों ने भी साथ दिया। बच्चों ने अपना गुल्लक तोड़ा, घर में जो गहने थे, उसे बेच दिया गया। 16 पन्ने के अखबार को 8 पन्ने का किया गया लेकिन ‘द संडे व्यूज़ ‘ का प्रकाशन जारी रहा…। सच तो ये है कि जब हमारा परिवार अंग्रेजों से लडऩे में नहीं झुका तो इस दौर में ‘नकारात्मक ताकतों ‘ के आगे कैसे झुकेगा…। पत्रकारिता को ‘मिशन’ के तौर पर लेकर चलने की ‘सोच’ ही है कि आज हमारी टीम की धारदार खबरों की अलग पहचान है।
‘द संडे व्यूज़’ के प्रकाशन में भी कई तरह की दिक्कतें आयी लेकिन ‘सोच’ बड़ी होने की वजह से ‘सकारात्मक सोच’ रखने वाले तमाम शुभचिंतकों का सहयोग मिलता रहा,जिसकी वजह से आज पूरे दम-खम के साथ अखबार प्रकाशित हो रहा है। हालांकि कई बार हमलोगों की हिम्मत तोडऩे के लिये सरकारी अधिकारियों ने द संडे व्यूज़ को ‘पंप्लेट ‘, ‘दो टके का’…व कई अन्य उपाधियों से विभूषित किया। हमारे परिवार को कई बार सच्चाई की कीमत चुकानी पड़ी। ‘सच’ लिखने के लिये हमलोगों को अन्याय का दंश भी झेलना पड़ा, पर हमने ‘सच’ और ‘ सिद्धांतों ‘ से कभी समझौता नहीं किया। ‘सच’ की राह कठिन है। यह हम इसलिये लिख रहे हैं कि आजादी के 78वें वर्ष में हम प्रवेश करके आजादी का ‘महोत्सव’ मना रहे हैं,पर आज भी समाज में ब्रिटिश साम्राज्य की मानसिकता वाले लोग हैं। ‘सच’ की आवाज उठाने पर उस आवाज को दबाने व ‘सजा’ देने पर आमादा रहते हैं। लेकिन… ये ‘द संडे व्यूज़ ‘है ना कि ‘द संडे न्यूज़’…। हमलोग जनता के ‘विचारों ‘को पूरी प्रमुखता के साथ उठायेंगे और कमजोर लोगों की ‘दमदार आवाज’ बनकर चलते रहेंगे…।
रविन्द्रनाथ टैगाोर की पंक्तियों का अनुसरण करते हुये ‘यदि कोई तुम्हारा साथ न दे तब भी तुम अकेले चलते रहो’…