धारा 144 का दुरुपयोग बंद हो तथा सुप्रीम कोर्ट का फैसला संपूर्ण देश में लागू हो


रघु ठाकुर

नई दिल्ली। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने झारखण्ड हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ झारखण्ड सरकार की याचिका को खारिज किया। जस्टिस अभय ओंका एवं उज्जवल भुईयां की बेंच ने कहा है कि यह प्रवृत्ति बन गई है कि जैसे ही कोई प्रदर्शन होता है धारा 144 का आदेश जारी कर दिया जाता है। यह गलत संदेश देगा। कोई प्रदर्शन करना चाहता है तो धारा 144 लागू करने की क्या जरूरत है? यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि धारा 144 का दुरुपयोग हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी हाईकोर्ट में भाजपा नेता निशिकांत दुबे आदि के खिलाफ दर्ज किये गये दंगे के मामले को झारखण्ड हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया था और एफ आईआर रद्द कर दी। जिसके खिलाफ झारखण्ड (झारखण्ड मुक्तिमोर्चा, कंाग्रेस, आरजेडी आदि की मिली-जुली सरकार है), के खिलाफ यह आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि शांतिपूर्ण आंदोलन का मौलिक अधिकार दिया गया है। नि:संदेह सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी और आदेश आज के दौर में एक क्रांतिकारी आदेश जैसा है।

शांतिपूर्ण प्रदर्शन के मौलिक अधिकार को दबाने की प्रवृत्ति केवल झारखण्ड में नहीं है बल्कि समूचे देश, केंद्र व राज्य सरकारों में फैली हुई है। यह बात अलग है कि झारखण्ड में भाजपा विरोधी दल है और इंडिया गठबंधन की सरकार है अत: वहां के भाजपा के लोगों ने यह याचिका दायर की परंतु अगर भाजपा के लोग उनकी अपनी सरकारों में चल रही स्थिति को देखें तो झारखण्ड और अन्य राज्य मध्य प्रदेश, छग, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि सभी प्रदेशों में जहां भाजपा सरकारें हैं ,वहां धारा 144 का वैसा ही उपयोग हो रहा है, जैसा झारखण्ड में हुआ। धारा 144 को, स्थाई घटना जैसा बना दिया गया है। पूरे साल कोई न कोई बहाने यथा कभी विधानसभा के नाम पर, कभी त्यौहारों के नाम पर, कभी परीक्षाओं के नाम और कभी अन्य बहाने से। सभाओं, प्रदर्शन, धरना आदि की अनुमति की जो प्रक्रिया तय की गयी है, वह इस प्रकार की है कि जैसे शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों को पहले जिला दण्डाधिकारी या सिटी मजिस्ट्रेट के यहां आवेदन देना होता है, फिर वे उसे एस.पी. को भेजते हैं और एस.पी. कार्यालय में आवेदन ले जाने की जवाबदारी भी प्रदर्शन करने वालों की होती है। फिर एस.पी. साहब का आफि स उसे संबंधित थानों को भेजता है और संबंधित थानेदार से आदेश लेकर वापिस एस.पी. कार्यालय, फिर एस.पी. कार्यालय से सिफ ारिश लेकर जिला मजिस्ट्रेट के यहां देना होता है। यानि व्यक्ति को लगातार एक सप्ताह आवेदन की प्रक्रिया से होकर गुजरना होता है, तब कहीं जाकर निश्चित हो पाता है कि अनुमति मिलेगी की नहीं। देश की राजधानी दिल्ली में तो संसद मार्ग थाने के डी.एस.पी. कार्यालय में जाकर एक 30-40 पेज का प्रोफ ार्मा भरना होता है। यह प्रोफ ार्मा भी सुप्रीम कोर्ट के नाम पर तय किया गया है। यह भी वचन देना होता है कि पानी और चिकित्सा की व्यवस्था प्रदर्शनकारी करेंगे, जबकि यह परंपरा रही है कि पानी और चिकित्सा की व्यवस्था प्रशासन करता रहा है। एक दिन से अधिक धरना देने की अनुमति नहीं दी जाती और दिल्ली के चिन्हित धरना स्थल जंतर-मंतर को हो चारों ओर ही घेरकर बंद कर दिया है। यहां तक कि सिविल नाफरमानी करने वालों को भी धरना स्थल पर जाने के लिये सुरक्षा जांच से गुजरना होता है। यानि एक प्रकार से इसे अघोषित रूप से प्रतिबंधित सिविल नाफ रमानी क्षेत्र कर दिया गया है।

एक तरफ कमजोर ताकत वाले प्रदर्शनकारियों के साथ यह संवैधानिक व्यवहार होता है और दूसरी तरफ ताकतवर समूहों के 1-1 साल धरने चलते हैं। वे हाईवे और कभी-कभी रेलमार्ग भी बंद करते हैं। चूंकि उनके पास जनशक्ति, धन शक्ति और प्रचार शक्ति होती है अत: उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती। स्वत: सुप्रीम कोर्ट भी उनके प्रति उदार बना रहता है। क्या यह दोहरा रवैया नहीं है ? क्या यह कानून के सामने समानता है? अनेकों याचिकायें कभी प्रशासन, सत्तापक्ष, कभी आमजनता या आंदोलनकारियों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन प्रस्तुत की गयी। परंतु इन पर कभी भी सर्वोच्च न्यायालय ने कोई वैधानिक निर्णय नहीं लिया, बल्कि तात्कालिक परिस्थितियों, सरकार और जनसमूह की स्थितियों या सुविधाओं को ध्यान में रखकर समयानुकूल कोई बीच का रास्ता सुप्रीम कोर्ट ने निकालने नहीं दिया। क्या कभी सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-हरियाणा पुलिस से पूछा कि उन्होंने सड़क जाम करने वाले कितने लोगों या संगठनों पर मुकदमा दर्ज किया है ? क्या कभी सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली से लेकर राज्यों तक सत्ताधीशों या सत्ताधारी दलों के द्वारा सड़कों को रोककर सभायें या कार्यक्रम करने के बारे में कोई जानकारी ली है ? तो उत्तर ना में ही आयेगा। जबकि हम देखते हैं कि सत्ताधारियों के आयोजन शहरों के बीचों बीच सड़कों पर होते हैं, जिनकी अनुमति के लिये कोई आवेदन नहीं लगता है, बल्कि जिनके लिये स्वत: पुलिस और प्रशासन अलिखित और अघोषित सहमति प्रदान करता है। धार्मिक आयोजनों के लिये तो विशेष छूट है।

इन दिनों जहां-जहां भाजपा सरकारें हैं वहां धार्मिक आयोजनों के नाम पर कहीं भी सड़कें बंद की जा सकती हैं, जुलूस, प्रदर्शन निकाले जा सकते हैं, पुलिस तथा प्रशासन उन पर कोई कार्यवाही करने की बजाय उनकी जी हुजुरी करता है। एक प्रकार की ताकतवर समूहों की अराजकता के सामने कानून आंख बंद कर लेता है। जो अभी तक पुलिस और प्रशासन करता था, वही अब सुप्रीम कोर्ट कर रहा है। वह निर्णय देने की बजाय जनमत या बहुमत की भावना के अनुकूल फैसला देने लगा है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड ने अखबार में छपी खबर के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का प्रतीक चित्र बदल दिया है। पुरानी कहावत थी कि कानून अंधा होता है याने कानून व्यक्ति या समूह के हिसाब से नहीं चलता बल्कि कानून-कानून के अनुसार चलता है। इसलिये न्याय पालिकाओं में एक प्रतिमा रखी जाती थी जिसमें न्याय की देवी के रूप में एक मूर्ति होती थी। जिसके हाथ में तराजू होती थी और आँखों पर पट्टी होती थी। बताया जाता है कि श्री चंद्रचूड़ ने उस पट्टी को हटवा दिया। यानि अब न्याय पालिका का घोषित या अघोषित सिद्धांत व्यक्ति निरपेक्ष न्याय का नहीं, बल्कि व्यक्ति सापेक्ष निर्णय का हो गया है। अब सुप्रीम कोर्ट कानून के अनुसार फैसला नहीं करेगा, बल्कि सामने समूह या सत्ता या जनमत की ताकत को देखकर निर्णय करेगा। यह भारतीय संविधान के कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत का समापन जैसा है। यह भविष्य में एक बड़ी अराजकता का कारण बन सकता है। जिसके लिये जिम्मेदारी राज्य सरकार और विधायिकों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय की भी होगी।

मैं सर्वोच्च न्यायालय से अपील करूंगा कि- 1. धारा 144 के बारे में झारखण्ड राज्य से संबंधित फैसला पूरे देश में लागू करने का आदेश जारी करें। 2. केंद्र और राज्य सरकारों को प्रदर्शन, धरने आदि के लिये सिंगल विंडो (एकल खिड़की प्रणाली) लागू करने का निर्देश दें, जिसके तहत यह प्रावधान हो कि अनुमति लेने वाले आवेदनकर्ता को केवल एक स्थान पर आवेदन करना होगा तथा तदसंबंधी प्रशासन अधिकारी लिखकर आवेदन को आयोजन के कम से कम 7 दिन पूर्व भेजे या आवेदन की प्राप्त तारीख के 3 दिन के अंदर अपना निर्णय लिखित रूप से सूचित करें ताकि आयोजक तदानुसार अपनी व्यवस्था कर सकें। 3. सर्वोच्च न्यायालय, केंद्र व राज्य सरकारों से यह आंकड़ा मांगे कि – (अ) पिछले एक वर्ष में कितने सरकारी और गैर सरकारी आयोजन आयोजित हुये, उनमें कितने आयोजनकर्ताओं के आवेदन आये। (ब) कितने आयोजन बगैर किसी आवेदन के हुये। (स) बगैर आवेदन या अनमुति के कितने आयोजकों पर कार्रवाई की गई। अगर यह जानकारी सुप्रीम कोर्ट माँगेगा तो नि: संदेह उन्हें न्याय करने में सुविधा होगी। अंत में यह भी कि सर्वोच्च न्यायालय और न्यायपालिकाओं में न्याय की देवी की पुरानी प्रतिमा जिसकी आँख पर पट्टी है और हाथ में तराजू है, उसे पुन: स्थापित किया जाये ताकि संविधान के प्रावधान, कानून के सामने समानता का सिद्धांत सुरक्षित रह सके।


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