सरदार पटेल की जयंती पर विशेष लेख


गांधीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रखर विद्वान थे लौह पुरुष सरदार पटेल

सरदार पटेल की राजनीतिक दृष्टि पर विगत कुछ वर्षों में चिंतको और लेखकों द्वारा बहुत कुछ लिखा गया है, किंतु सरदार पटेल की आर्थिक दृष्टि पर विद्वानों द्वारा गहन चिंतन नहीं हुए , जबकि सरदार पटेल एक उच्च कोटि के आर्थिक विचारक भी थे। अगर सरदार पटेल के आर्थिक विचारों पर चिंतन करें तो हम उनके आर्थिक विचारों को गांधी के आर्थिक विचारों के काफी समीप आते हैं, दूसरे शब्दों में सरदार पटेल एक उच्च कोटि के गांधीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री थे।

आजाद भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल के आर्थिक विचारों की प्रासंगिकता के प्रश्न को समझने के लिए राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारकों को भी समझना आवश्यक है। सरदार पटेल जो कि मूलतः एक प्रशिक्षित अर्थशास्त्री नहीं थे किंतु गांधी जी की तरह समाज और राजनीति की गहरी समझ रखते थे। इसी समझ के आधार पर उन्होंने अपने भाषणों, लेखों और विचार उत्तेजक संसदीय बहसों में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कई महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने उन आर्थिक मुद्दों पर चिंतन किया जो कि भारत के राजनीतिक एवं आर्थिक एकीकरण से जुड़े हुए थे। गांधीवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के महत्वपूंर्ण घटकों पर उनकी सोच एवं दृष्टि दूरगामी थी। उनके लेखों का परिष्कृत अध्ध्यन उन्हें एक उच्च कोटि का गांधीवादी आर्थिक विचारक साबित करता है उन्होंने राष्ट्रनिर्माण, बहुलतावाद, स्वदेशी, संरक्षणवाद न्यासिता, श्रम -पूंजी संबंधों, विकेंद्रीकरण, ग्राम स्वराज, समाजवाद, साम्प्रादायिक सौहार्द , अहिंसा, सत्याग्रह, श्रम की महत्ता, लोकतांत्रिक मूल्य, विदेश नीति, पंचायती राज और लोकतांत्रिक संस्थाओं की कार्य प्रणाली पर स्पष्ट तौर पर अपनी बात रखी और कई नीतिगत सुझाव दिए। उन्होंने संविधान सभा की बहसों में इन आर्थिक और राजनीतिक महत्वों के मुद्दों को उठाया। उनके आर्थिक विचारों के बेहतर अध्ययन और मनन के लिए इन बहसों का भी गहन विश्लेषण आज के समय की मांग है। वर्तमान समय में जब दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थायें उदारीकरण के सिद्धांतों पर चल रही हैं। पूंजीवादी शक्तियां फिर से श्रम की महत्ता को खतरे में डाल रही हैं, बहुलतावादी विचार संकट में है और आर्थिक और सामाजिक असामानता बढ़ रही है, सरदार पटेल आर्थिक चितंन पर विमर्श करना समय की मांग है।

समाजवाद के संदर्भ में पटेल की आर्थिक दृष्टि गांधी के सर्वोदयी समाज की स्थापना पर बल देती है। विनोबा भावे, कुमारप्पा और शुमाकर की तरह वे भी लघु तकनीक के माध्यम से उत्पादन को बढ़ावा देने के पक्षधर थे। वे गांधी के आर्थिक दर्शन के उस विचार के घोर हिमायती थे जिसमें ग्राम आधारित औधौगिकरण से एक अहिंसक आर्थिक समाज के निर्माण की कल्पना की गई है। उन्होंने समाजवादी अर्थव्यवस्था के सुचारु रूप से क्रियान्वयन के लिए उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया और ‘आवश्यक औधौगिकरण’ की अवधारणा को जनमानस से समक्ष प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि ‘आवश्यक औधौगिकरण’ से पूंजी निर्माण होता है। उनका ये भी मत था कि मार्क्स का सैद्धांतिक समाजवाद एक पश्चिम की अवधारणा है। इस पश्चिमी समाजवाद को वो भारत जैसी पूर्वी सभ्यताओं के लिए वे उपयोगी नहीं समझते थे। उनका कहना था कि ,”गाँव के उद्योगों के विकास में सच्चा समाजवाद निहित है। हम अपने देश में बड़े पैमाने पर उत्पादन के कारण पश्चिमी देशों में व्याप्त अराजक परिस्थितियों को फिर से पैदा नहीं करना चाहते हैं।

राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीयकरण के सन्दर्भ में पटेल के विचार बहुत ही सारगर्भित है। वे राजनीतिक एकीकरण को आर्थिक एकीकरण का का एक अभिन्न अंग मानते थे। उनका मत था कि बिना राजनीतिक एकीकरण के राष्ट्र का एकीकरण संभव नहीं है। उनका राष्ट्रीय एकता का विचार उनके बहुलता के विचार से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए उन्होंने साम्प्रादायिक सौहार्द की भावना पर बल दिया। उनका मत था, “सरकार की रचनात्मक आलोचना करते हुए और उसकी त्रुटियों की ओर संकेत करते हुए आपको याद रखना चाहिए कि आपको समाज के भविष्य के रखरखाव और देश की अखंडता और उसकी स्वतंत्रता के लिए एक उच्च जिम्मेदारी मिली है”। उन्होंने संविधान की बहसों के दौरान ही ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी घटनोंओं पर चिंता ज़ाहिर की थी। वे किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक तनाव और धार्मिक संघर्ष के समाधान के लिए वे गांधीवादी सत्याग्रह का मार्ग चुनना पसंद करते थे। सत्याग्रह को पटेल ने एक आर्थिक अवधारणा के तौर पर और अधिक विकसित किया। उनका मत था कि अपरिग्रह, अहिंसक प्रतिरोध और आत्म शुद्धि द्वारा सत्याग्रह के नियमों का पालन किया जाना संभव है। उन्होंने सरकार तथा लोगों से उत्तरदायी सत्याग्रही बंनने का अनुरोध किया।

पटेल गांधीवादी अनुयायी थे और उन्होंने गाँव और देश की आर्थिक समृद्धि के समग्र विकास के लिए कुशल पंचायती राज व्यवस्था की वकालत की। गांधी की तरह वे भी प्रशासनिक, कार्य और कार्यपालिका के विकेंद्रीकरण में विश्वास करते थे। उन्होंने पंचायत को निचली अदालत के रूप में भी देखा था। वह शक्तियों के विचलन में भी विश्वास करते थे। उनके अनुसार धन का केन्द्रीकरण शोषण और असमान वितरण का मुख्य स्रोत था। उन्होंने इन शब्दों में पंचायती राज पर अपने विचार व्यक्त किए “हमें गांवों में ग्राम पंचायत की स्थापना करनी चाहिए। अपनी परंपरा और संस्कृति में सर्वश्रेष्ठ संरक्षण करें और अपने आदर्शों के प्रति निस्वार्थ समर्पण के साथ रहें। यदि आप ऐसा कर सकते हैं, तो आप अपने लक्ष्य को प्राप्त करने और रामराज्य की स्थापना करने के लिए सुनिश्चित हैं ” गाँधी के कई विचारों से पटेल काफी हद्द तक प्रभावित थे और उन्ही में से एक था रामराज्य की स्थापना। अपने शब्दों में राम राज्य की बात करते हुए उन्होंने गाँधी की विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए कहा, “मैं आपको बताता हूँ कि उनके विचारो में आप राम राज्य कैसे पा सकते हैं। सबसे पहले हमें हिन्दू – मुसलमान एकता पानी होगी। दूसरे स्थान पर छुआछूत को समाप्त करना होगा। तीसरा मूल आधार है आत्मनिर्भरता पाना”।

सरदार पटेल ने महिला सशक्तिकरण का मूल्य लोगों को समझाया है। देश व समाज में नारियों का क्या स्थान होना चाहिए, यह उन्होंने स्त्रियों तथा अन्य जनों को समझाने का सदैव प्रयत्न किया। देश में चल रही कई कुप्रथाओं का उन्होंने कड़ा विरोध किया व साथ ही साथ नारियों को भी इसका विरोधी बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भारत में चल रही परदा रखने की प्रथा का पुरज़ोर विरोध किया है। वे बिहार के लोगो के विरुद्ध खड़े हुए जो अपने घर की महिलाओं को परदे में रहने को कहते थे। पटेल ने उनसे पूछा, “क्या तुम लोगों को महिलाओं को परदे में रखने में शर्म महसूस नहीं होती? कौन हैं ये महिलाएं? तुम्हारी माँ, तुम्हारी बहने, तुम्हारी पत्नियाँ। क्या तुम्हें सच में लगता है की केवल उन्हें परदे में रखकर ही तुम उनकी पवित्रता बनाये रख सकते हो? यदि इन स्त्रियों से मैं कुछ कह सकूं तो मैं कहूंगा: ऐसे कायरों के साथ रहने से अच्छा है की तुम इनसे अलग हो जाओ”।

सरदार पटेल की आर्थिक दृष्टि और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के क्रियान्वयन पर उनकी सोच गाँधी के आर्थिक विचारों से प्रभावित है। विद्वानों द्वारा सरदार पटेल के आर्थिक दर्शन पर कम ही शोध किये गए हैं, किन्तु समाजवाद, सत्याग्रह, अहिंसा, न्यासिता, ग्राम स्वराज, पंचायती राज, महिला सशक्तिकरण और सर्वोदय पर उनके विचार अनुकरणीय हैं. उनके आर्थिक दर्शन में वर्तमान समय की कई राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं का हल भी दिखाई देता है। उनके विचार जो की गाँधी की दूरदृष्टि का पुट लिए हुए हैं , उनके पुर्नविचार और पुर्नलेखन की आवश्यकता है।

लेखक: डा. विजय श्रीवास्तव
सहायक आचार्य, अर्थशास्त्र विभाग, लवली प्रोफेशनल विश्वविद्यालय




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