डॉ. लोहिया जी का पुनर्पाठ


 रघु ठाकुर

नई दिल्ली। 12 अक्टूबर डॅाक्टर लोहिया की पुण्यतिथि है और आज के दिन उन संदर्भों की याद भी जरूरी है जो आज और अधिक प्रासंगिक हैं। यह एक ऐसा विचित्र दौर है जिसमें देश और दुनिया में लोहिया एक परिवर्तन की मिसाल के संवाद के केंद्र में हैं। न केवल भारत में बल्कि भारत के बाहर यूरोप और अमेरिका तक में वैश्विक संस्थानों में लोहिया पुनर्जीवित, पुनव्र्याख्ति और पुनर्पाठ के केंद्र हैं परंतु भारत में कुछ ऐसी जमातें उतरी हैं जो अपने-अपने कारणों से लोहिया को भुलाना चाहती हैं। पिछले कुछ दिनों से पिछड़े वर्ग के नाम पर बने संगठन, जब पिछड़े वर्ग के आरक्षण की चर्चा करते हैं तो उसमें लोहिया नहीं होते। यहां तक कि अमूमन इनके जो पोस्टर, बैनर, साहित्य आदि छपाये जा रहे हैं उनमें पेरियार, अम्बेडकर, कांशीराम, रामस्वरूप वर्मा, कर्पूरी ठाकुर, ललई यादव, ज्योतिबा फुले, साबित्री बाई फुले आदि के चित्र होते हैं, परंतु लोहिया का चित्र नहीं होता।

आरंभिक दौर में विशेषत: 2014 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद पिछड़े वर्ग के कई संगठनों का उदयकाल बना। बहुत वर्षों बाद इन संगठनों में यादव बुद्धिजीवी मित्रों की सक्रिय भूमिका नजर आयी। यह भूमिका नजर आयी, हो सकता है कि इसका कारण उत्तर प्रदेश में श्री अखिलेश यादव के हारने का भी हो, क्योंकि उत्तर प्रदेश में हारने के बाद यादव समाज में एक निराशा की भावना आई थी। उत्तर प्रदेश में जहां लंबे समय तक स्व. मुलायम सिंह यादव सत्तासीन रहे, फि र उनके पुत्र आखिलेश यादव सत्तासीन हुए, अब उस राज्य से यादव जाति का सत्ता से हटना एक त्रासद था। उन्होंने विशेषत: यादव समाज के पढ़े-लिखे लोगों ने इसकी खोज शुरू की और उन्हें लगा कि यादव जाति पर जातिवाद के आरोप से यादव समाज, अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों से दूर हो चुका है। परिणाम स्वरूप इनमें से अधिकांश पिछड़ी जातियां अपने अधिकारों के लिये भाजपा की ओर मुड़ गई हैं, क्योंकि भाजपा का प्रत्यक्ष नेतृत्व तो पिछड़ी जाति से ही है। स्व. कर्पूरी ठाकु र के द्वारा लागू किये गये लोहिया के विचारों के अनुकूल आरक्षण के फ ार्मूले से जो अत्यंत पिछड़ी जातियां लाभान्वित हुई थीं उन्होंने भी बिहार के समान यादव से इतर पिछड़ी जाति के संगठनों में अपना भविष्य देखना शुरू कर दिया। इस तथ्य को समझकर कुछ जेएनयू और दिल्ली वि.वि. के पढ़े-लिखे यादव मित्रों ने आरक्षण और पिछड़े वर्ग को मुद्दा बनाकर, विशेष कर सोशल मीडिया पर जगाना शुरू किया। जाहिर है इससे कुछ अच्छे परिणाम भी आये हैं। पिछड़े वर्ग की जातियों में आरक्षण को लेकर एक वर्गीय चेतना फिर से पैदा हुई और वे भाजपा के खिलाफ संगठित हुए परंतु इन नौजवानों में से कई लोगों को अपनी भाषा लोहिया या कर्पूरी ठाकुर से नहीं ली वरन एनजीओ की भाषा, कुछ दलित संगठनों की भाषा, कुछ माक्र्सवादी भाषा और कुछेक ने अपनी सुविधा के लिये अल्पसंख्यक और मुस्लिम संगठनों की भाषा को चुना। परंतु वे इस प्रक्रिया में अपवाद छोड़कर इतिहास भूल गये कि वह एकमात्र लोहिया ही थे जिन्होंने महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद और आजादी के बाद पिछड़े वर्ग के लोगों को 60 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने की बात शुरू की थी।

पिछड़ा पावे सौ में साठ लोहिया का नारा था। जिन्होंने पहली बार कहा था योग्यता से अवसर नहीं बल्कि अवसर से योग्यता पैदा होती है। यहां तक उन्होंने कहा कि हमें इतिहास में सामाजिक व्यवस्था के द्वारा अयोग्य बनाए लोगों को हिस्सेदारी देकर सत्ता में बैठाकर योग्य बनाना है। लोहिया ने पिछड़े वर्ग में, अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों को पिछड़ी जाति और सभी महिलाओं को पिछड़ा वर्ग माना था। 1980 के बाद कांग्रेस पार्टी में बाबू जगजीवनराम की भूमिका नेतृत्व हस्तक्षेप, निरंतर कम होने के बाद अनुसूचित जाति के कर्मचारियों मेें एक असुरक्षा का भाव पैदा हुआ था। उन्होंने अपने हित व रक्षा के लिये पहले बामसेफ और फि र बहुजन समाजपार्टी तथा कांशीराम के माध्यम से राजनीति में अपनी पकड़ और पहचान बनाने का प्रयोग शुरू किया। वहीं दूसरी तरफ 1967 में लोहिया की मौत के बाद पिछड़ी जातियों मेें एक निराशा का भाव था और वे विशेषत: जो अति पिछड़ी जातियों के लोग थे वे अपना अलग स्थान खोजने लगे। ऐसे दौर में उन्होंने (कांशीराम) ने अनुसूचित जाति के संगठन और उसके वोट उस जाति के बड़े अधिकारियों के पैसे के आधार पर इन अति पिछड़ी जातियों को लुभाया और अपने साथ ले लिया। समाजवादी लोग जो लोहिया के आंदोलन से आये थे वे आपस में लड़ते रहें और इस जमीनी सत्य और समाजवादी आंदोलन के साथ खिसकते जन आधार की उन्होंने कोई चिंता नहीं की। एक तरफ जातिवाद, दूसरी तरफ किसी महत्व को न मिल पाने की वजह से 1980 के बाद पिछड़ी जातियां गैर यादव, कुर्मी, कुशवाहा (काछी माली) आदि बसपा के साथ चले गये। यादव के अलावा जो ताकतवर पिछड़ी जातियां थीं जैसे कुर्मी, लोधी आदि वे भाजपा में अपना स्थान बनाने लगी। अल्पसंख्यक जो सदैव केवल भाजपा को हराने के नाम पर वोट करता है, वह अपनी-अपनी प्रादेशिक और क्षेत्रीय गैर भाजपाई दूसरे मजबूत दल या संगठनों के साथ हो गया। तीसरी तरफ , पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा जो माक्र्सवाद के गढ़ माने जाते थे, वहां से माक्र्सवादियों के उखडऩे के बाद माक्र्सवादियों ने हिंदी बेल्ट पर लोहिया की राजनैतिक भूमि पर और समाजवादियों के पिछड़े वर्ग के आधार पर अपने भविष्य को खोजना शुरू किया है। उनके पास साधन थे, कसा हुआ संगठन था और उच्च जातियों के नेतृत्व वालों की भाषा और बोली की क्षमता थी। उन्होंने कुछ यू-टयूब चैनल शुरू किये और उनके माध्यम से आरक्षण और समाज परिवर्तन को लेकर पेरियार, अम्बेडकर, फूले आदि के नाम का इस्तेमाल कर पुन: वैचारिक रूप से मोडऩा शुरू किया।

यह दुर्भाग्य है जो लोहिया के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुए थे उन्होंने अपने आप को जाति व सत्ता में सिकोड़ लिया और लोहिया को इतिहास के मंच से विस्थापित करने के खेल में लग गये। यह तीन बड़े कारण हैं जिसकी वजह से पिछड़े वर्ग, दलितों, अल्पसंख्यकों में और इतिहास के पन्नों से लोहिया को पीछे करने या कमतर दिखाने के खेल में माक्र्सवादी मित्र लगे हुए हैं। माक्र्सवादी मित्रों को यह भी सुविधा है कि लोहिया जिन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और प्रतीकों से अपने उद्देश्य के तर्क निकालते थे, परंतु माक्र्सवाद के लिये, उनकी तथाकथित धर्मविहीनता के लिये लोहिया असुविधाजनक है। अत: उनके दृष्टिकोण से, पिछड़े वर्ग के आरक्षण के इतिहास से और लोहिया को अलग कर लिया जाये तो पिछड़ा वर्ग उनके माक्र्सवादी गुण, अभारतीयता की भाषा और शब्दावली को स्वीकार कर लेगा। यही सोच स्वर्गीय काशीराम, मायावती और अन्य दलित नेताओं और संगठनों की है। एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि अब पिछड़े वर्ग की जातियों में जातिवाद बहुत तेजी से प्रवेश कर गया है और वे अब पिछड़े वर्ग के इतिहास को पिछड़ी जाति के इतिहास में बदलना चाहते हैं। इतिहास को सवर्ण समाज और भाजपा बदलना चाहती है ताकि अतीत के सामाजिक अपराधों की छाप मिट जाये। कांग्रेस पार्टी भी मिटाना चाहती है क्योंकि वह आजादी के बाद पिछड़ा वर्गों और आरक्षण के खिलाफ खड़ी होती रही है। इतिहास को बसपा, दलित संगठन और कांशीराम, मायावती के अनुयायी भी बदलना चाहते हैं क्योंकि उन्हें केवल दलित नेतृत्व और दलित पार्टी चाहिए। पिछड़ा वर्ग उनकी सत्ता के लिये एक हथियार है। इतिहास भाजपा को भी बदलना है क्योंकि सवर्ण हितों के लिये अनुकूल वातावरण बनाना है एवं नेहरू खानदान की सत्ता के लिये इतिहास कांग्रेस को भी बदलना है। इतिहास अपनी नई जमीन के लिये माक्र्सवादी को भी बदलना है। पिछड़ी जातियों में भी जातिवाद आ गया है। अब वे वर्ग की जगह अपनी जाति पर खुल रहे हैं। जब लोहिया के बारे में, उनके पोस्टर के बारे में, मैंने पिछड़े वर्ग के कुछ मित्रों से पूछा तो उनका उत्तर था कि लोहिया तो सवर्ण जाति के थे। क्या यह कितना जायज है कि जिस व्यक्ति ने अपना संपूर्ण जीवन दलित व पिछड़ा वर्ग के लिये लगा दिया, जो अपनी जाति से लड़ा, और उन्हीं वंचित जातियों के लोग, जिन्हेें जुबान और ताकत लोहिया ने दी थी वे इस तरह से सोचते हैं। यह घटना सामान्य नहीं है, बल्कि पिछड़े वर्ग के पतन की कहानी की शुरूआत है।

अल्पसंख्यक समाज वैसे ही कट्टर हैं या सत्ता आकांक्षी है, जैसे हिंदू समाज में है या अन्य धर्म वालों में है। चूंकि लोहिया की धर्म निरपेक्षता साहसिक, बेबाक और हर धर्म की कट्टरता के खिलाफ है। इसलिये लोहिया किसी भी कटट्रपंथी मन को नहीं लुभाते। लोहिया ने भिजवाया यह कौन कह सकता था कि रजिया सुल्तान हिंदुओं की पुरखा हैं और हर मुसलमान को कहना चाहिए कि बाबर विदेशी हमलावर था। हिन्दू मन बाबर को हमलावर कहने पर खुश होता है, परंतु रजिया को पुरखा नहीं मानना चाहता। मुस्लिम कट्टरपंथ, रजिया को हिंदू पुरखा मानने पर खुश होता पर बाबर के खिलाफ नहीं बोलता। लोहिया के अलावा यह साहस किसमें था जो कबीर के समान हिन्दू-मुसलमान कट्टरपंथ दोनों को ललकारता है जो समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़ा होता है। जो यह कहते कि लड़ाई हिंदु- मुसलमान की नहीं देशी और विदेशी की है। जो अपनी सप्त क्रांति में इंसान-इंसान के बीच के हर फर्क को बताना चाहता था। जो यह कहने का साहस करता था कि हिंदू की पहचान जनेऊ नहीं है, मुस्लिम की पहचान दाढ़ी नहीं है। और आज अगर मुस्लिम भाई कांग्रेस या वामपंथी दलों में अपना भविष्य खोजते हैं तो यह उनकी छिपी हुई कट्टरता है जिसके बचाव के लिये कांग्रेस या वामपंथ के समर्थक दल उनके वोट के लिये, उनके कट्टरपंथ का बचाव करते हैं और भाजपा के विकास के लिये वे खाद उपलब्ध कराते हैं। आज स्थिति यही बन गई है। आज देश भले ही पूर्णत: दो दलीय न बना हो पर दो धर्मों के दलों में धु्रवीकृत हो गया है, अलग-अलग राज्यों में उनका नाम अलग हो सकता है किंतु स्थिति यही है। अगर सच्ची धर्मनिरपेक्षता कहीं है तो वह लोहिया और कबीर की भाषा में ही मिल सकती है। लोहिया ने आजादी के बाद महात्मा गांधी के सबसे क्रांतिकारी शब्द सिविल नाफ रमानी को न केवल जिंदा रखा बल्कि उसे देशभर में फैलाने का काम किया। गांधी की मौत के बाद देश में सर्वोदय के नाम से और अन्य बौद्धिक जमात के नाम से यह चर्चा शुरू हुई थी कि अब देश आजाद हो गया है। अत: सिविल नाफरमानी की जरूरत नहीं है। परंतु लोहिया ने कहा की सिविल नाफ रमानी तो लोकतंत्र का पर्याय है। उन्होंने अपने विचार और कर्म से सिविल नाफरमानी को न केवल जिंदा रखा, तार्किक बताया, बल्कि अहिंसक परिवर्तन का माध्यम बनाया।

यह लोहिया ही कहते थे कि अगर सड़कें सूनीं हो जायेंगी तो संसद आवारा हो जायेगीपरंतु आज का दौर एक भारी चिंता का दौर है। जहां सत्ता, राजनेता, राजनैतिक दल, मीडिया और प्रशासन तंत्र सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सिविल नाफ रमानी को अप्रासंगिक और अस्वीकार्य बनाते हैं। सत्ता बंधनों के द्वारा, मीडिया की उपेक्षा या उकसाने के द्वारा तंत्र अपने अबाध सत्ता भोग के लिये, कई बार राजनैतिक दल भी अपनी सत्ता के लिये, अपने प्रचार और लाभ के लिये, सिविल नाफ रमानी का दुरुपयोग करते हैं। 22 सितंबर को नीलम पार्क के सामने पुलिस ने भारी बेरिकेडिंग की थी। दोनों ओर की सड़कों को बंद कर दिया था। मैंने एक पुलिस अधिकारी से पूछा यह सड़कबंदी क्यों की तो उन्होंने कहा कि हम आदेश मानने के लिये मजबूर हैं। आज के प्रदर्शन में कांग्रेस के कुछ नेता आने वाले हैं और उन्हें अंदेशा है कि वे आयेंगे, बेरिकेट पर चढ़ेंगे, पत्थर मारेंगे और अखबारों में छपेंगे। सिविल नाफरमानी वालों का झगड़ा व्यवस्था से होता है, न कि पुलिस से। सिविल नाफरमानी करने वालों की इस प्रचार लिप्सा और गलत तरीकों ने सत्ता और तंत्र को न केवल निरंकुश होने का तर्क दे दिया है बल्कि उसकी अनिवार्यता सिद्ध कर दी है।

सत्ता और तंत्र के इस षडय़ंत्र में मीडिया भी सहभागी है। जिसके लिये अहिंसक और सिविल नाफ रमानी कोई खबर नहीं बल्कि तोडफ़ ोड़, आगजनी, हिंसा और कभी-कभी केवल संख्या बल खबर है। आज लोहिया के अलावा यह कौन कह सकता था कि जनता और पुलिस का मिलन सम्मेलन होना चाहिए, ताकि एक-दूसरे के प्रति गलतफ हमियां और दूरियां कम हों। व्यक्ति का कर्तव्य सिविल नाफ रमानी है और पुलिस का कर्तव्य है व्यवस्था और तंत्र तक उनकी बात पहुंचाना। मीडिया मुद़दों को प्राथमिकता दे न कि संख्या और व्यवस्था की खबर दे। आज लोहिया को इन आधारों पर देखना चाहिए और लोहिया का पुनर्पाठ होना चाहिए।


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