थाने डर नहीं, भरोसे का प्रतीक बनें


विवेक श्रीवास्तव

लखनऊ। हरियाणा के नए पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) का एक साधारण-सा आदेश इन दिनों पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। उन्होंने कहा है कि थानों और चौकियों में प्रभारी अधिकारी अपनी बड़ी-बड़ी मेज़ें और कुर्सियाँ छोटी करें, कुर्सी के पीछे तौलिया लटकाना बंद करें, और जनता से सामान्य नागरिक की तरह पेश आए। यह आदेश सुनने में मामूली लगता है लेकिन इसका असर बहुत गहरा है। यह किसी टेबल-कुर्सी का नहीं, बल्कि मानसिकता का सुधार है। इसमें वह भाव छिपा है कि पुलिस को जनता के साथ दूरी नहीं, संवाद बढ़ाना चाहिए। थानों में जो सत्ता की ऊँचाई बन गई है, उसे घटाकर भरोसे की ऊँचाई बनानी होगी। यह विचार नया नहीं, लेकिन इसकी व्यावहारिकता आज पहले से कहीं अधिक ज़रूरी है। खासकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहाँ कानून-व्यवस्था का भार और जनता की अपेक्षाएँ, दोनों ही सबसे अधिक हैं।

भारत में थाने जनता के लिए न्याय पाने की पहली सीढ़ी माने जाते हैं लेकिन यह भी सच है कि बहुत-से लोग पुलिस थाने में जाने से कतराते हैं। क्योंकि वहाँ कदम रखते ही उन्हें एक ऐसी दीवार महसूस होती है, जो नागरिक और पुलिस के बीच की दूरी का प्रतीक है। ऊँची कुर्सी पर बैठा अधिकारी, सामने खड़ा नागरिक, और बीच में एक चौड़ी मेज़, यह केवल फर्नीचर नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक असमानता का संकेत है। पुलिस को अगर जनता का भरोसा जीतना है, तो सबसे पहले यह दृश्य बदलना होगा।हरियाणा डीजीपी का आदेश इसी बदलाव की ओर पहला कदम है। जब थानों की कुर्सियाँ और मेज़ें छोटी होंगी, तब अधिकारी और नागरिक के बीच संवाद का स्तर बराबरी पर आएगा। थाने डर का नहीं, भरोसे का केंद्र बनेंगे।उत्तर प्रदेश की पुलिस देश की सबसे बड़ी पुलिस फोर्स है। लगभग 2.5 लाख से अधिक कर्मियों की यह मशीनरी रोज़ लाखों लोगों के संपर्क में आती है।कानून-व्यवस्था बनाए रखना, अपराधों की जांच करना, राजनीतिक और सामाजिक दबाव झेलना यह सब यूपी पुलिस की दिनचर्या है लेकिन इसी दिनचर्या में संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टि का अभाव कई बार जनता के गुस्से और अविश्वास का कारण बन जाता है। लोग पुलिस को सहयोगी नहीं, बल्कि सत्ताधारी एजेंसी समझने लगते हैं।कई रिपोर्टें बताती हैं कि थाने में आने वाला पीड़ित अक्सर असहज महसूस करता है। कभी उसकी बात अधूरी रह जाती है, कभी उसे उल्टे सवाल झेलने पड़ते हैं। यही कारण है कि कई लोग शिकायत दर्ज कराने से भी कतराते हैं। अगर पुलिस खुद यह ठान ले कि “जनता से डर नहीं, संवाद चाहिए”, तो यह छवि बदल सकती है।

उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह का हालिया बयान पूरे तंत्र के लिए आईना है। उन्होंने कहा कि “थानों और चौकियों के दारोग़ा नौकरी में आते ही लक्ज़री कारें कहाँ से ख़रीद लेते हैं ? यह ईमानदारी की कमाई नहीं हो सकती।” यह सवाल सिर्फ़ आलोचना नहीं, बल्कि आत्ममंथन की पुकार है। क्योंकि यह बात सभी जानते हैं कि पुलिस व्यवस्था में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हैं। शिकायत के बदले सुविधा शुल्क, जांच में देरी, या राजनीतिक दबाव में निर्णय, ये सब चीजें जनता के भरोसे को तोड़ती हैं। जब जनता को लगे कि कानून लागू करने वाले ही नियम तोड़ रहे हैं, तो पूरे तंत्र की नींव हिल जाती है। इसलिए विक्रम सिंह का यह प्रश्न हर ईमानदार अधिकारी के मन को झकझोरता है।यह भी मानना होगा कि पुलिसकर्मी आसान जीवन नहीं जीते। 24 घंटे की ड्यूटी, त्योहारों पर काम, मानसिक दबाव, सामाजिक जिम्मेदारियाँ, इन सबका बोझ उन पर होता है। पर उनकी आर्थिक स्थिति आज भी सम्मानजनक नहीं कही जा सकती। एक सब-इंस्पेक्टर या सिपाही, जो रोज़ जनता की सुरक्षा करता है, वह खुद आर्थिक असुरक्षा से घिरा रहता है। किराया, बच्चों की शिक्षा, परिवार की जरूरतें, सब मिलाकर उसका जीवन संघर्षपूर्ण है। ऐसे में अगर उसे ईमानदारी से जीने का अवसर नहीं मिलेगा, तो भ्रष्टाचार के बीज वहीं पनपेंगे। राज्य सरकारों को यह समझना होगा कि ईमानदारी केवल आदर्श नहीं, सुविधा का भी विषय है। अगर पुलिसकर्मी को पर्याप्त वेतन और सम्मानजनक जीवन मिले, तो वह रिश्वत से दूर रहेगा। एक संतुष्ट पुलिसकर्मी ही समाज को सुरक्षित रख सकता है।

पुलिस सुधार केवल कानून या ढाँचे में नहीं, व्यवहार में होना चाहिए। थाने का पहला दृश्य, अधिकारी का पहला व्यवहार और शिकायत सुनने की पहली प्रतिक्रिया। यही तय करती है कि नागरिक का अनुभव कैसा रहेगा। अगर थाने में कोई नागरिक आए और अधिकारी उसे खड़ा न रखे, बल्कि बराबरी से बैठाकर शालीनता से उसकी बात सुने  तो वह व्यक्ति उस दिन पहली बार पुलिस को “अपना” महसूस करेगा। इसी भावना को “दिल बड़ा होना” कहते हैं। थानों में छोटी मेज़ें केवल प्रतीक हैं, लेकिन इन प्रतीकों से बड़ा बदलाव आता है। क्योंकि बदलाव वहीं से शुरू होता है जहाँ व्यवहार में समानता और सम्मान झलकता है।पुलिस की भूमिका समाज में केवल “अपराध रोकने” की नहीं है। उसकी असली भूमिका समाज में सुरक्षा और विश्वास की भावना जगाना है। लेकिन जब पुलिस का स्वरूप सेवा के बजाय सत्ता का बन जाता है, तो जनता में डर पैदा होता है। भारत के कई राज्यों में पुलिस सुधार के प्रयास हुए। मित्र पुलिस, जनसुनवाई दिवस, थाना दिवस जैसी पहलें शुरू की गईं। पर ज़्यादातर प्रयास केवल कागज़ पर सीमित रह गए। कारण वही, मानसिकता में बदलाव का अभाव।

अगर पुलिस अधिकारी जनता को “अपना ग्राहक” नहीं बल्कि “अपना सहयोगी” समझें, तो आधे से ज़्यादा समस्याएँ अपने आप खत्म हो जाएँगी। पुलिस का असली मूल्य उसकी वर्दी में नहीं, उसकी संवेदना में है।


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