रघु ठाकुर
नई दिल्ली। पिछले लगभग चार-पांच वर्षों से सारी दुनिया नये- नये प्रकार की महामारियों से पीडि़त है और इससे भारत में ही लाखों मौत के शिकार हुये हैं। अनेकों अंतरराष्ट्रीय अध्ययनकर्ताओं ने इनसे मृतकों की संख्या 30-40 लाख भी बतायी है, वैसे भी भारत में अनेकों बीमारियों के चलते लाखों लोग मौत के शिकार होते हैं। कैंसर जैसी बीमारियों का नाम पहले यदा- कदा सुनने को मिलता था,अब लाखों लोग कैंसर से पीडि़त हैं। कैंसर के अस्पताल भरे पड़े हैं और हजारों लोग प्रति वर्ष मौत के शिकार हो रहे हैं। जिनमें अधिकांश लोग वे हैं जिन्हें इलाज उपलब्ध नहीं है या एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जिन्हें इलाज पर्याप्त नहीं मिल पाता है। इसी प्रकार टी.बी. जैसी बीमारियां भी हजारों लोगों की जान ले लेती है, प्रदूषण तो इतनी गंभीर समस्या बन गयी है कि महानगरों के छोटे-छोटे बच्चे भी अस्थमा, श्वास जनित बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर सरकार तक प्रदूषण को लेकर चिंता व्यक्त करती रही, परंतु मर्ज लाईलाज है।मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में आयुष्मान योजना की घोषणा की थी। गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को 5 लाख रुपये तक का इलाज सरकार की ओर से देने की घोषणा की थी। वैसे यह योजना अच्छी थी परंतु इस योजना में भारी भ्रष्टाचार हुआ। एक तो राज्य सरकारों ने अपनी सुविधा और अनुकूलता से आयुष्मान योजना के लिये अस्पताल चिन्हित किये। अधिकांश मामलों में आयुष्मान कार्ड की 5 लाख रुपये की राशि का भारी भ्रष्टाचार हुआ। कई निजी अस्पतालों में तो चिकित्सक और मरीजों के बीच समझौता जैसा हो गया और मामूली सी बीमारी को बड़ी से बड़ी बीमारी बताकर पैसे का बंटवारा कर लिया गया।
पिछले दिनों एक रपट छपी थी कि भारत सरकार ने प्राप्त शिकायतों के आधार पर जो जांच कराई उनमें कई हजार करोड़ रुपयों का घोटाला का भ्रष्टाचार पाया गया। अभी तक हमारे देश में जो चिकित्सा की व्यवस्था है वह निम्न हिस्सों में बंटी हुयी है।
1. केंद्र सरकार के कर्मचारी सीजीएसएच योजना के पात्र होते हैं और उन्हें सेवा कार्यकाल में और सेवानिवृत्ति के बाद भी मुफ्त इलाज मिलता है। इसी प्रकार सेना, सीआरपीएफ, आरपीएफ आदि केंद्र कार्य या सेवानिवृृत्त कर्मचारियों को मुफ्त इलाज की व्यवस्था है।
2. राज्य सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों को भी सेवाकाल में इलाज मुफ्त मिलता है और सेवानिवृत्ति के बाद भी कई प्रकार की योजनाएं उनकी चिकित्सा के लिये बनायी गयी हैं।
3. सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के लिये यदा बैंक, एविऐशन, स्टील प्लांट, कोयला क्षेत्र, लोह क्षेत्र,बंदरगाह आदि के कर्मचारियों के लिये उनकी नियोक्ता संस्थाओं की ओर से इलाज की व्यवस्था की गई है। बहुत सारे संस्थानों ने खुद अस्पताल बनाये हैं जिनमें बेहतर इलाज की व्यवस्था है। और कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के कारखाने वालों ने बड़ी-बड़ी नामधारी निजी अस्पतालों के साथ समझौता किया है जहां उन्हें समुचित इलाज की व्यवस्था है।
4. बहुत सारे सरकारी, गैर सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों को संस्थानों की ओर से सामूहिक चिकित्सा बीमा की योजना लागू की गयी है।
5. गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों को भी सरकारी चिकित्सालयों में या प्रशासन की मदद से मुफ्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हैं।
6. देश के अमीरों और उच्च, मध्यम वर्ग के इलाज के लिये उनके पास देश व विदेश में पर्याप्त साधन हैं। देश का व्यापारी तबका कारपोरेट कारखानेदार इसमें आते हैं यानि ये सब मिलाकर लगभग 20-25 करोड़ लोग होते हैं जिन्हें चाहे सरकार से चाहे संस्थान या चाहे बीमा से या अपनी क्षमता से नि: शुल्क इलाज की व्यवस्था उपलब्ध है। और अगर यह मान लिया जाये कि इनके परिवार में औसतन 4-5 लोग हैं तो औसतन 90 से 100 करोड़ लोगों को सरकारी या गैर सरकारी चिकित्सा उपलब्ध है।
देश के राजनेताओं, सांसदों या पूर्व सांसदों, विधायकों को क्रमश: लोकसभा या विधानसभाओं के माध्यम से श्रेष्ठतम नि:शुल्क चिकित्सा उपलब्ध है। इस आधार पर लगता है कि देश के मध्यम वर्ग के लोग, कुछ मध्यम किसान, पत्रकार ही वे अभागे लोग हैं जिन्हें नि: शुल्क सरकारी चिकित्सा उपलब्ध नहीं है। जिनकी आर्थिक क्षमता भी इलाज लायक नहीं है। और जो गरीब हैं, न अमीर हैं, न कर्मचारी हैं, न व्यापारी हैं बल्कि ऐसे भारतीय हैं जिनके पास आर्थिक या राजनैतिक ताकत नहीं है। इसलिये वे व्यवस्था से पूर्णत: उपेक्षित हैं। इन्हें मामूली से बुखार जैसी बीमारी की चिंता होती है कि इलाज कैसे होगा? क्योंकि सरकारी अस्पताल या तो बहुत दूर हैं और हैं भी तो उनमें इतनी भीड़ है कि इलाज पाना दुष्कर कार्य है। निजी अस्पतालों में उन्हें इलाज पाना कठिन होता है। मामूली बुखार के इलाज में फ ीस, दवा व जांच में कई हजार खर्च हो जाते हैं। वैसे तो देश में एम्स, सिम्स जैसे बड़े-बड़े सरकारी अस्पताल स्थापित किये गये हैं परंतु वहां आने वाले मरीजों की संख्या और चिकित्सकों की उपलब्धता अकल्पनीय है। हमारे एक साथी श्याम सुंदर यादव की बेटी को, अपने बेटे का एक छोटा सा अॅापरेशन कराना है जो दिल्ली के एम्स में होना है। उसके पहले वह आगरा के निजी चिकित्सालय में अपनी क्षमता भर इलाज करा चुकी परंतु उससे उन्हें लाभ नहीं हुआ। अब उनसे कहा गया है कि एक छोटा सा अॅापरेशन दिल्ली एम्स में होगा। वह दिल्ली बेटे को लेकर गये थे और दिल्ली के डॉक्टर ने उसे देखा। अॅापरेशन के लिये कहा और उसके लिये ढाई वर्ष बाद की तारीख दी है। मैं इसमें एम्स संस्थान या उसके कुशल चिकित्सकों का कोई दोष नहीं मानता, क्योंकि वे लोग अपनी पूरी क्षमता से, लगन व मेहनत से इलाज करते हैं, परंतु मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा है कि वे स्वत: भी लाचार हैं। यह खाका इसलिये खींचा है ताकि सरकार समझ सके कि सरकार चिकित्सा और इलाज के लिये जो तरीका अपना रही है उससे देश की बड़ी आबादी को चिकित्सा मिलना संभव नहीं है। फि र सरकारी अस्पतालों में इलाज और दवाओं के नाम पर भी भेदभाव होता है।
अफसरशाही राजनेताओं या उनकी सिफ ारिश वालों के लिये न केवल बेहतर इलाज मिल जाता है बल्कि ब्रांडेड दवाईयां भी मिल जाती है। मरीज ज्यादा हैं और सरकार का दवाओं के लिये बजट जरूरत से काफ ी कम रहता है। इसका परिणाम यह है। अस्पतालों में दो प्रकार की दवाओं की खरीद होती है, एक सामान्य मरीजों के लिये जेनेरिक और लोकल मेड जैसी दवाओं की खरीदी होती है जो बीमारी को मिटाने लिये सक्षम नहीं होती, लंबे समय तक मरीज यह दवायें, गोलियां खाते रहते हैं और बाद किसी दिन कोई नर्स या कम्पाउंडर सलाह दे देता है कि यहां की दवाओं से फ ायदा नहीं होगा, बाहर से ब्रांडेड कंपनियो की दवाईयां खरीदो जो भारी महंगी होती हैं। जबकि राजनेताओं, अफसर और ताकतवर लोगों को ब्रांडेड दवायें उपलब्ध रहती हैं। सरकार को चाहिये कि वह इसका भी अध्ययन कराये कि सरकारी चिकित्सालयों ने कितनी दवाईयां जिनेरिक खरीदी गयीं और कितनी ब्रांडेड। तथा ब्रांडेड दवाईयां किनको दी तथा जिनेरिक दवाईयां किनको दी गयी। अधिकांश सरकारी चिकित्सालयों की हालत यह है कि वहां मशीनी जांच के साधन उपलब्ध नहीं हैं, या तो मशीने नहीं हैं, मशीनें हैं तो खराब हैं। करोड़ों की मशीनें डम्प पड़ी हैं, जिन्हेें चलाने वाले तकनीकी जानकार नहीं हैं। और परिणाम यह होता है कि खून की जांच, ईसीजी, एक्सरे आदि जांचों के लिये सामान्य मरीजों को बाजार के हवाले कर दिया जाता है। हमारे देश अपवाद छोड़े तो आमतौर पर चिकित्सकों का व्यवहार मरीजों को ठीक करना कम धन कमाना ज्यादा हो गया वे मरीज का हाथ पकडऩे के पहले उसकी माली हालत पूछते हैं। अधिकांश सरकारी अस्पताल के सरकारी डॉक्टर प्राइवेट प्रेक्टिस कर रहे हैं। उनके लिये सरकारी अस्पताल केवल मरीजों को रिफ र करने का संस्थान हैं, जहां से वे मरीजों को अपने निजी अस्पतालों में रिफर कर देते हैं। हालात इतने बदतर हैं कि कितने ही डॉक्टर जिन्हें मरीज अपना भगवान मानता है, उनसे वे साहूकार जैसा व्यवहार करते हैं, यद्यपि सभी नहीं कुछ अपवाद भी है।
प्रायवेट डॉक्टर तो आमतौर पर मरीज की आर्थिक स्थिति देखते हैं और फिर फीस आदि का निर्धारण करते हैं। कितने ही जांच करने वाले संस्थान, दवा बेचने वालों को मैं जानता हूं जो डॉ. साहेबान को जांच और दवा लिखने के बदले में एक निश्चित कमीशन की राशि देते हैं। देशी-विदेशी बड़ी-बड़ी दवा निर्माता कंपनियां चिकित्सक साहबानो को विदेशों की यात्रा कराते हैं, पुरुस्कार देते हैं और यह सब क्यों होता है, यह सब कौन नहीं जानता ? निजी चिकित्सालय और बड़े-बड़े नाम वाले चिकित्सालय, गैर चिकित्सक पूंजीपति लोग हैं। अस्पताल तो ठहरने के लिये पांच सितारा होटलों जैसी बन गयी, जिनका भारी भरकम किराया होता है और जांच के नाम पर विशेषज्ञों को बुलाया जाता है, जिन्हें कुछ राशि दी जाती है और बकाया अस्पताल के मालिक के पास जाता है। अति संपन्न मरीजों को इनमें इलाज कराना फ़ायदेमंद ही है क्योंकि टैक्स बचता है। भारतीय संविधान के अनुसार चिकित्सा यद्यपि अभी तक मूल अधिकार नहीं है परंतु संविधान के डायरेक्टेड प्रिंसिपल में है। डायरेक्टेड पिं्रसिपल नीति निर्देश संविधान बनाते समय उन विषयों के लिये समाहित करने के लिय तय किये गये थे जिन्हें आज से 75 साल पहले और आजादी के तत्काल बाद क्रियान्वित करने की सरकार के पास संसाधन की क्षमता नहीं थी और इसलिये इस उम्मीद के साथ कि कुछ ही समय में सरकारें इन्हें संविधानिक अधिकार बनायेगी, नीति निर्देश के रूप में रखा गया था परंतु सरकार ने अभी तक चिकित्सा को संवैधानिक मूल अधिकार नहीं बनाया।
हालांकि मैं यह जानता हूँ कि अकेले मूल अधिकार के खण्ड में शामिल करने मात्र से सबको चिकित्सा तत्काल उपलब्ध नहीं होगी। शिक्षा के लिये मूल अधिकार में शामिल किया गया परंतु वह बहुत सफल नहीं हुआ व सरकारों ने कुछ प्रतिशत सीटें गरीब छात्रों को निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षित करने का नियम बनाया, परंतु उन निजी शिक्षण संस्थानों को वे बाध्य नहीं कर सके। एक तो इसलिये भी कि निजी शिक्षण संस्थानों के मालिकों के हाथ बड़े लंबे हैं और आमतौर पर वे जिस श्रेणी और संपन्न वर्ग से आते हैं वह सत्ताधीशों का अपना वर्ग होता है, जिस पर हाथ डालना या दबाव बनाना सरकारों के लिए आसान नहीं होता, और कुल मिलाकर ढाक के तीन पात रह जाते हैं। जब तक सरकार संपूर्ण शिक्षा का सरकारीकरण नहीं करेगी तब तक शिक्षा का मूल अधिकार संविधान के पन्नों में दर्ज रहेगा परंतु जमीन पर नहीं उतरेगा। इसलिये भारत सरकार से मैं व लो.स.पा. पिछले दो दशकों से लगातार विभिन्न माध्यमों से मांग कर रही है कि चिकित्सा को मूल अधिकार के खण्ड में शामिल किया जाये, चिकित्सा का संपूर्ण सरकारीकरण किया जाये और चिकित्सा सबको मिल सके यह व्यवस्था की जाये। जैसा मैंने ऊपर बताया कि 90-100 करोड़ लोगों के पास निजी या सरकारी पर्याप्त चिकित्सा के साधन है। भारत के 40-50 करोड़ लोग ही इससे वंचित हैं। इसलिये अगर सरकार चिकित्सा को मूल अधिकार और सबको आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराने का प्रावधान करेगी तो ही हल निकलेगा, और इसके लिये चिकित्सा का संपूर्ण रूप से सरकारीकरण जरूरी होगा। अगर सरकार यह करेगी तो जहां एक तरफ सभी को जरूरत के अनुसार चिकित्सा मिलेगी, बेहतर दवाईयां मिलेगी, भ्रष्टाचार व लूट बंद होगी साथ ही कोई विशेष राशि भी नहीं लगेगी। दुनिया के कई देशों में यहां तक कि क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देशों में यह व्यवस्था बनायी गयी है व सफ ल है। जब श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश की राष्ट्रपति थीं तो हमारी पार्टी के धरने व ज्ञापन के बाद उन्होंने अपने स्तर पर एक पहल शुरू की थी। मैं उनका आभारी हूं। और यह प्रस्ताव काफ ी दूर तक गया था, परंतु उनके राष्ट्रपति पद से हटने के बाद वह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया।
आज देश की राष्ट्रपति महिला है और अपनी सभी संवैधानिक लाचारियों के बाद भी वह संवेदनशील हैं। वे आदिवासी हैं और आदिवासी की पीड़ा को, उनके हालातों को, बीमारी से उनकी मौतों को उनसे बेहतर कौन जान सकता है? मैं उनसे अपील करूं गा कि पद पर व्यक्ति कोई भी हो परन्तु भारत के राष्ट्रपति की संस्था की ओर से जो पहल की गई थी उस पहल को वे पुनरू क्रियाशील बनायें। प्रधानमंत्री जी को सलाह दें और चिकित्सा को मूल अधिकार में शामिल कराने तथा सबको जरूरी चिकित्सा उपलब्ध कराने तथा चिकित्सा को संपूर्ण रूप से सरकारी क्षेत्र में लाने की पहल करें। इस निर्णय से देश के करोड़ों लोगों को जीवनदान मिलेगा।