विशेष: पत्रकारिता और राजनीति में हिन्दी का बदलता राष्ट्रवादी स्वरूप


लेखक: डा. विजय श्रीवास्तव (अर्थशास्त्र विभाग लवली प्रोफेशनल विश्वविद्यालय)

क्या किसी भाषा का राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद से संबंध हो सकता है ? गहरे अर्थों में इस वाक्य का विश्लेषण करें तो उत्तर हाँ में ही मिलेगा | तो क्या भाषायी राष्ट्रवाद इसी का रूप है ? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर की खोज में कुछ बातों को समझते हैं | आज जबकि राष्टवाद का संबंध भाषा से जोड़ा जा रहा है और उसमें उग्रता की चरम सीमा दिखाई देती है , इस पर विमर्श करना आवश्यक है | भारत में भाषा का राष्ट्रीय राजनीति से भी गहरा संबंध रहा है | भारत जैसे भाषायी विविधता वाले देश में राष्ट्रीय राजनीति पर अधिकतर हिन्दी पट्टी वाले नेताओं का आधिपत्य रहा है | मूल रूप से हिंदी में जनता से सशक्त संवाद करने वाले नेता ही जनप्रियता और लोकप्रियता के नए आयाम प्राप्त करते हैं | चंद्रशेखर , अटल और मोदी इसके उदाहरण हैं |

स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले जो हिन्दी जनचेतना, जनआंदोलन और विचार प्रवाह की भाषा थी, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वो हिंदीं राजनीति और सत्ता के शिखर पर पहुंचने का माध्यम बन गई |

ये एक महत्वपूर्ण लेकिन रुचिकर तथ्य है कि हिंदी पत्रकारिता और समाचार पत्रों के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व इस विचार प्रवाह का पहला प्रयास एक अहिन्दी प्रदेश बंगाल में “उत्तण्ड मार्तण्ड” के रूप में हुआ | तत्पश्चात हिंदी की नागरी क्रान्ति को आगे बढ़ाने का कार्य पत्रकारिता के मूर्धन्य विद्वानों माखनलाल चतुर्वेदी , विपिन चंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और प्रताप नारायण मिश्र ने किया | किन्तु हिंदी को जनमानस और अहिंसक विचार की भाषा बनाने का काम एक अहिन्दी प्रदेश में जन्मे गुजरात के महान कर्मयोगी ने किया | ये कर्मयोगी थे महात्मा गांधी | उन्होंने इंडियन ओपिनियन , “यंग इंडिया” और नवजीवन नाम के पत्र निकाले | इंडियन ओपिनियन को उन्होंने अंग्रेजी के अतिरिक्त तमिल , हिंदी और गुजराती में भी निकाला | हिंदी में इसका संपादन का प्रभार मनसुख लाल के पास था |

गांधी की हिन्दी गुजराती जितनी अच्छी नहीं थी, इसलिए उन्होंने ऐसा किया और दूसरा वे सरल अर्थों में हिन्दी को जनमानस की भाषा बनाना चाहते थे | गांधी की पत्रकारिता न केवल राष्ट्रवादी विचारों का एक कोष थी अपितु अहिंसा , विकेन्द्रीकरण और सत्याग्रह जैसे अहिंसा विचारों को जन -जन तक पहुंचाने के लिए एक सन्देश माध्यम भी थी | गाँधी जी हिन्दी अख़बार को समाचार पत्र नहीं विचार पत्र मानते थे | इसलिए हिन्दीं उनके लिए समाचार नहीं विचार की भाषा थी |

गाँधी के हिंदी दर्शन की इस भावना को उनके अनुयायियों विनोबा , लोहिया और दादा धर्माधिकारी ने आगे बढ़ाया | गांधी के लिए हिन्दी कभी बाजार की भाषा नहीं बनी जैसा कि आज के समाचार पत्रों एवं मीडिया चैनलों के लिए है | स्पष्ट है कि गांधी ने हिन्दी को भाषा के राजनीतिकरण और बाजारीकरण से दूर रखा और इसके राष्ट्रवादी स्वरूप को बनाये रखा | लेकिन गांधी ने कभी हिन्दी का सहारा लेकर हिंसक ध्रुवीकरण नहीं किया जैसा कि आज के कुछ दक्षिणपंथी हिन्दी पट्टी के नेता करते हैं |

आज के संदर्भ में अगर विश्लेषण करें तो दृष्टिगत होता है, हिन्दी राजनीतिक ध्रुवीकरण, बहिष्कृत राष्ट्रवाद और बाजारवाद की भाषा बन गई है | बाजारीकरण और ध्रुवीकरण से भाषा की महानता को तो कोई खतरा नहीं किन्तु राष्ट्र की अस्मिता को अवश्य है | मोदी भी गांधी की तरह गुजराती हैं, किन्तु उनका जनमानस से हिन्दी में संवाद विचारों के आदान प्रदान के लिए नहीं अपितु एक वैचारिक तानाशाही बनाने के लिए है | हिन्दी में बोलने वाले दक्षिणपंथ के अधिकतर नेता कोरे राष्ट्रवाद और अल्पसंख्यकों के प्रति विद्वेष से भरे रहते हैं | तो वहीं अखबारों और मीडिया हाउसों के लिए हिन्दी हिंसक और अस्वस्थ मनोरंजन को लोगों तक पहुँचाने और धनार्जन करने का साधन है | ये एक प्रकार का नया भाषायी पूंजीवाद है | जिस हिन्दी के माध्यम से गांधी , लोहिया और विनोबा ज्ञान का विकेन्द्रीकरण करना चाहते थे ,वो हिन्दी अब राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीकरण का साधन बन गई | विचार गौढ़ हो गया मगर अर्थ प्रधान हो गया | शायद इसीलिए प्रबुद्ध चिंतक पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भारत के प्रधानमंत्री नहीं बन सके , ये तथ्य दिवगंत नेता ने स्वयं स्वीकार किया है |

अहिंसक और सत्याग्रही राष्ट्रवाद की अवधारणा कमजोर होती गयी और विघटनकारी सोच की राजनीति करने वालों ने हिन्दी को हिंसक और उग्र राष्ट्रवाद से जोड़ दिया | इसी कारण क्षेत्रीयता और भाषायी वैमनस्य भी पैदा हुआ | हिन्दी का ये बदलता राष्ट्रवादी स्वरूप भारत के अखंडता एवं एकता के लिए खतरा है | नई शिक्षा नीति में बहुभाषावाद की बात की जा रही है, किन्तु कहीं ऐसा न हो ये बहुभाषावाद कोरे राष्ट्रवाद का रूप ले ले | हिंसक राजनीति विजयी हो जाये और अहिंसक राष्ट्रवाद पिछड़ जाये | आवश्यक है कि आप हिन्दी में चिंतन करें, मनन करें, विचार करें और हिन्दी में लिखें किन्तु हिन्दी को वैमनस्य फैलाने वाली भाषा न बनायें , न ही हिन्दी को पूंजीवादी ताकतों के सामने नतमस्तक होने दें | निर्णय आपके हाथ में है कि आप किसके साथ खड़े होंगें | गांधी की अहिंसक राष्ट्रवादी हिन्दी या मोदी की सत्तालोलुप हिंसक राष्ट्रवादी हिन्दी |

(ये लेखक के निजी विचार हैं)


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