डा. अनुपमा रावत (अर्थशास्त्र विषय की आचार्य एवं उच्च शिक्षा विभाग में विशेष कार्य अधिकारी, भोपाल)
कौन सी है फेक न्यूज़ ? आख़िरकार ? फेक न्यूज़ को राजनीतिक हथकंडा बनाया जा रहा, उसकी आड़ में एक ओर फेक न्यूज़ परोसी जा रही ? कोविड 19 महामारी से सभी को बचाने लिए सरकार द्वारा लाकडाऊन के एलान का सड़क पर चलते हुए ही मजदूरों ने अपने गृह नगरों और गांवों की तरफ विपरीत पलायन शुरू कर दिया था। इस कठिन सफर में भूख प्यास से तो सड़क दुर्घटनाओं में तो कभी ट्रेन के नीचे कटने से कई श्रमिकों की मृत्यु भी हो गयी थी । ये प्रवासी श्रमिक कई दशकों से अपने गृहनगरों और गांवों को छोड़ कर शहरों के असंगठित क्षेत्र को अत्यंत न्यूनतम मजदूरी पाकर भी ज़िंदा रखे हुए थे और उनकी परवाह करने वाले उनके अपने परिवार भी दूर उनके देश में उनका इंतज़ार करते हुए इन कीमतों को चुका रहे थे । इस संबंध में सत्ता के गलियारों से आने वाले बयान सनसनीखेज तो हैं ही साथ ही वो फेक न्यूज़ का पल्लू पकड़ कर उसकी आड़ में खड़े होना चाहते हैं । अब सवाल ये उठता है कि फेक न्यूज़ दरअसल है कौनसी ? वो जिसकी ओट में सरकार छुपना चाहती है या वो जो खुद सरकार के अपने बयान हैं। मंगलवार को तृणमूल कांग्रेस की नेता एम पी माला रॉय के एक लिखित प्रश्न का जवाब देते हुए गृह राज्य मंत्री श्री नित्यानंद राय ने जो उत्तर दिया उसे सरकार की एक और सनसनीखेज खबर ही कहा जा रहा है। इसके ठीक एक दिन पहले ही यानी सोमवार को केंद्रीय श्रम मंत्री श्री सन्तोष गंगवार भी लोक सभा में मृत श्रमिकों के परिवारों को मुआवजा दिए जाने के संबंध पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में ये कह ही चुके थे कि श्रमिकों के परिवारों को मुआवजा देने का प्रश्न ही नहीं उठता है, क्योंकि विपरीत पलायन के दैरान जिन श्रमिकों की मृत्यु हुई है, उसका डाटा ही सरकर के पास नहीं है।
माला रॉय ये जानना चाहती थीं कि सरकार ने 25 मार्च को लॉक डाउन का एलान करने से पूर्व कौन कौन से ज़रूरी कदम उठाये थे और क्या कारण रहे थे कि, हज़ारों लाखों मजदूरों को विवश होकर अपने गृह राज्यों की ओर पलायन करना पड़ा ? और कईयों को तो बिना साधनों के भूखे प्यासे हज़ारों मील कभी पैदल चलते हुए तो कभी साईकल चलाते हुए, तो कभी एक जगह से दूसरी जगह वाहनों में बारी बारी से लिफ्ट लेते हुए इस अत्यंत कठिन और थका देने वाले सफर के दौरान अपनी जान भी गंवानी पड़ी। ये सभी ने देखा और खबरों में पढ़ा है कि कुछ हाईवे पर एक्सीडेंट्स का शिकार भी हुए तो कुछ को भूख और प्यास ने मार डाला। एक हादसा तो काफी भयावह था जब रेलवे ट्रैक पर आराम कर रहे प्रवासी श्रमिकों पर से ट्रेन गुज़र गयी और 16 मजदूर उसकी चपेट में आकर मर गए। इन दिल दहलाने वाले वाकयों को अलग अलग पत्रकारों ने पत्र पत्रिकाओं और टीवी के माध्यम से जनता तक पहुंचाया भी। फिर भी कई मौतें ऐसी भी रही होंगी जिनकी खबर मीडिया को नहीं भी हुई होगी। देश के लगभग हर राज्य की सड़कों पर रोज़ कई कई दिनों तक पैदल चलते इन श्रमिकों की तस्वीरें सभी के ज़ेहन में कैद हैं और जब भी वो तस्वीरें देखते हैं या याद आती हैं तो हम सब सिहर जाते हैं । कोई भी ऐसा न होगा जिसके मन मस्तिष्क पर इन अत्यंत मार्मिक कहानियों का असर न हुआ होगा। लेकिन इस पर सरकार का दिया गया जो जवाब है वो और भी विक्षुब्ध करनेवाला है। इन सबका ठीकरा सरकार ने फेक न्यूज़ पर फोड़ दिया। देश के गृह मंत्रालय के अनुसार फेक न्यूज़ के चलते श्रमिकों और दूरस्थ राज्यों से आ बसे श्रमिकों में इसलिए भगदड़ मच गई थी क्योंकि उनके मन में ये आशंका घर कर गई कि कैसे अचानक बंद हो गए उनके काम धंधों से उनकी रोजमर्रा की जरूरतें कैसे पूरी की जा सकेंगी ? और अब वो अपना गुज़ारा कैसे और किसके भरोसे करेंगे? उन्हें तो ये भी नहीं पता चल पा रहा था कि, और कितने दिन ये लॉक डाउन चलेगा ? सरकार का मानना है कि ये आशंकाएं फैलाने में फेक न्यूज़ का ही हाथ था। ये मीडिया द्वारा लगाई गई अटकलों को फेक न्यूज़ बोला जा रहा है या वाकई ग़लत आंकड़ों के साथ खबर फैलाने वाले कोई असामाजिक तत्व थे या कि कुछ ऐसे जिन्हें देशद्रोही होने का करार दिया जा सकता है। चलिए अगर मान भी लिया जाए कि ये फेक न्यूज़ कुछ लोगों द्वारा फैलाई जा रही थी तो भी सही खबर किसके पास थी ? क्या सरकार के पास खुद कोई प्लान तैयार था ? जिसे पूरे देश के साथ साझा कर सरकार कोविड से निबटने के लिए कुछ कारगर कदम उठा सकती थी। यदि सरकार की पारदर्शी नीति सबके सामने होती तो क्या किसी का फेक न्यूज़ फैलाना कोई मायने भी रखता ? ज़ाहिर सी बात है सरकार के किसी पुख्ता बयान के अभाव में किसी को भी इन सवालों के जवाब कैसे मिलते ? लेकिन इन सबके लिए फेक न्यूज़ को ज़िम्मेदार बता कर अपना पल्ला झाडना सरकार की नीयत पर कई सारे प्रश्नचिन्ह लगाता है। जब विरोधी पार्टियों से इन प्रश्नों की लौ और तेज़ होने लगती है, और उसकी गर्मी महसूस होती दिखती है तो तुरत बुधवार को पुनः सरकार का एक और बयान हाज़िर हो जाता है है, और श्रम एवं रोजगार केंद्रीय मंत्री श्री संतोश कुमार गंगवार श्रम को समवर्ती सूची का हिस्सा बताते हुए कहते हैं कि राज्य एवं केंद्र सरकारें दोनों ही इस पर विधान बना सकते हैं।
वे ये भी कहते हैं कि केंद्रीय श्रम नियम सहित प्रवासी श्रम नियम दोनों ही केवल राज्य सरकार द्वारा संचालित किये जा सकते हैं । और प्रवासी श्रम के पंजीयन का पूरा डाटा भी ‘प्रवासी श्रम अधिनियम’ के तहत राज्य सरकारों का ही दायित्व है। उनके अनुसार अप्रत्याशित कोविड 19 की इस विपदा के दौरान पलायन कर रहे श्रमिकों का डाटा अपने स्तर पर श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने इकट्ठा तो किया है लेकिन इन यात्राओं के दौरान हुई प्रवासी श्रमिकों की मृत्युओं का कोई भी ब्यौरा उनके पास नहीं है। अब प्रश्न ये उठता है कि इन समन्को के अभाव में भी क्या सरकार का ये दायित्व नहीं बनता कि मृतकों के परिवारों के लिए मुआवजे की घोषणा कर दे। मीडिया के पास जो मृतकों की जानकारी है जिसे सीधे जनता से कई बार साझा किया गया है, और उसके अनुसार लगभग 300 प्रवासी श्रमिकों की इस घटनाक्रम में मृत्य हुई है। इनमें से लगभग 150 मज़दूर तो सिर्फ चलते हुए वाहन दुर्घटनाओं का शिकार हुए ।
क्या सरकार के लिए ये डाटा कोई मायने नहीं रखता ? क्या उससे उन मृत्युओं की पुष्टी नहीं कर सकती ? हम सब जानते है कि ये समय सामान्य समय न होकर एक वैश्विक महामारी का संकट है और ऐसे में जब सब की हिफाज़त के मद्दे नज़र लौकडाउन घोषित किया जाता है तो क्या सभी राज्य सरकारों के मुख्य मंत्रियों को इससे पूर्व अवगत नहीं करवाया जाना चाहिए था। और यदि केंद्र सरकार अपने ही स्तर पर ये निर्णय लेती है जो वो इन विशेष परिस्थितियों में वो ले भी सकती है तो क्या केंद्र सरकार को इस सम्पूर्ण घटना की जानकारी और ज़िम्मेदारी नहीं रखनी और लेनी चाहिए थी ?
सबसे अहम बात तो ये है कि अटकलों को फेक न्यूज़ का नाम दिया जा रहा है। दरअसल फेक न्यूज़ को अब इस संदर्भ में पुनर्भाषित करने की ज़रूरत लगती है। चलिए अब एक नज़र डालते हैं इस उन प्रवासी मृतक श्रमिकों पर जिनकी इस घटनाक्रम में मृत्यु हुई है । एक बच्चा भी गूगल की एक क्लिक पर अभी के अभी पलायन की इन भयावह कहानियों को एकत्रित नहीं कर सकता जो हमारे सोशल मीडिया और समाचार खबरों में भारी पड़ी हैं ? क्या ये डेटा नहीं कहलाता ? या कि आप उसे डेटा नहीं मानते। नहीं मानते तो जांच तो की जा सकती है न। और कुछ नहीं तो हर राज्य को ही निर्देशित कर दें कि उनके यहाँ जिन भी प्रवासी श्रमिकों की आवा जाही के दौरान सड़क दुर्घटनाओं और भूख प्यास से जान चली गयी हो उसे मुआवज़ा देने का प्रबंध करें। ये तो एक विडम्बना ही है कि अपने ही देश के रहवासियों को कोविड 19 के प्रकोप से बचाने के लिए सरकार ने जो यत्न किये उसके लिए पूर्ण लोकडौन को अपनाया ताकि अपने देश के नागरिको का उससे बचाव किया सके। वहीं हमारे शहरों के कारखानों और उनकी अर्थव्यस्था को चलाने में लगे लाखों लोग जो अपने राज्य, गाँव देहातों को छोड़ कर और बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के इन शहरों को अपनी कर्मभूमि बना चुके लोगों को लॉकड़ाऊन करवा कर वापिस पलायन के लिए मजबूर करते हैं और बिना कोई सुरक्षा के लाखों की तादाद में मजदूर सड़को पर निकल पडते हैं पैदल अपने गांवों की दूरी को नापते हुए तो उनकी परवाह न सरकार को क्यूँ नहीं होती है ??