लेखक: डा.विजय श्रीवास्तव (सहायक आचार्य, अर्थशास्त्र विभाग, लवली प्रोफेशनल विश्विद्यालय)
महान गांधीवादी विचारक, कर्मयोगी और भूदान आंदोलन के प्रणेता भारत रत्न विनोबा भावे न केवल भारत के गौरव थे अपितु समस्त संसार के आध्यात्मिक गुरू भी थे। उनका भूदान और ग्रामदान का विचार पश्चिमी देशों के चिंतको को भी सम्मोहित करता है। लुइ फिशर ने उनके योगदान को स्मरण करते हुए कहा था कि “ग्रामदान हाल के समय में पूरब से आया सबसे रचनात्मक विचार है। आजादी के प्राराम्भिक वर्षों नेहरु ने उस बाजार आधारित माडल पर केंद्रीय योजनाओं के माध्यम से भारत का नवनिर्माण करना चाहा जिसे महात्मागांधी ने १९१० में उनकी कालजयी रचना “हिंद स्वराज” में सिरे से खारिज कर दिया था। दुर्भाग्य से नेहरु ने विकास के गांधी जी के सर्वोदय माडल की जगह पूंजीवादी माडलों को तरजीह दी। महात्मागांधी के देहावसान के बाद देश में नेहरु की समाजवादी अर्थव्यवस्था ने गांधीवादी विचारकों के मध्य एक निराशा का माहौल बना दिया। विनोबा ने इन निराशाओं के भंवर को पीछे छोड़ते हुये लोकनीति में सामुदायिक अहिंसा का एक महान प्रयोग किया जिसने आगे चलकर भूदान और ग्रामदान का रुप ले लिया।
गांधी की भांति विनोबा भी अहिंसक विकेंद्रीक्रत समाज को सच्चे अर्थों में कल्याणकारी समाज मानते थे। विनोबा महान गांधीवादी आर्थिक अर्थशास्त्री जे सी कुमारप्पा की स्थायी समाज व्यवस्था के उच्चतम स्तर को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील भी थे। वे एक ऎसे ग्रामीण समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें विभिन्न आर्थिक एवं सामाजिक संगठन एक दूसरे से बिना किसी स्वार्थ के परस्पर सौहार्दपूर्ण विनिमय करते हैं। नि:संदेह विनोबा का यह सामाजिक और आर्थिक दर्शन गांधी के विचारों का एक प्रवाह है। अपरिग्रह, न्यासिता, स्वदेशी, सत्याग्रह, विकेंद्रीकरण और सर्वोदय विनोबा के आर्थिक दर्शन के महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं और इसके आधार पर ही वे एक शोषण रहित अहिंसक समाज की स्थापना करना करना चाहते हैं।
कुछ लोग अपने विचारों से समाज में एक वैचारिक क्रांति पैदा करते हैं और कुछ लोग अपने कार्यों से क्रांतिकारी विचार पैदा करते हैं। विनोबा वास्तव में दोंनों प्रकार के लोगों का एक सम्मिश्रण हैं इसलिए उन्हें एक कर्मयोगी क्रांतिकारी कहना उचित होगा। उन्होने भूदान और ग्रामदान के विचार को एक क्रांतिकारी आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। उनका यह अहिंसक आंदोलन समता मूलक, संघर्ष विहीन समाज के निर्माण के लिये एक अद्दितीय प्रयास था क्योंकि भूदान और ग्रामदान का विचार आर्थिक एवं सामाजिक असामानताओं को समाप्त करने के लिये एक अहिंसक माध्यम बनकर सामने आया। वर्तमान समय में जब भूमिअधिग्रहण कानून को लेकर तमाम प्रकार की हिंसक घटनाएं हो रही है, लोगों को विनोबा की वैचारिक अहिंसक क्रांति से सीखना चाहिये किंतु ये कार्य बाजारवादी ताकतों के मोहपाश में फंसी हुई केंद्रीय सत्ता नही कर सकती इसकेलिये सामुदाय़िक तौर पर विकेंद्रीक्रत प्रयास करने होंगे। यहां ये बात भी विचारणीय है कि वर्तमान भारत में जो भी भूमि संबधी समस्याएं उतपन्न हुयी है कहीं न कहीं उनका प्रादुर्भाव गांधी के विचारों की अवहेलना के कारण ही हुआ है।
आधुनिक सभ्यता के मानव जीवन पर पड़ने वाले कुप्रभावों का विवेचन विनोबा भी अपने साहित्य में गांधी की ही भांति ही करते है। विनोबा भावे अपनी पुस्तक “स्वराज शस्त्र” एवं “लोक नीति” में जिन राजनीतिक विचारों की सारगर्भित व्याखया की है, वह गांधी की हिंद स्वराज की द्रष्टि से ही प्रभावित है। इस अर्थ में बेहतर समझा जा सकता है कि विनोबा लोक व्यवहार में ग्राम आधारित गणतंत्रीय व्यवस्था में स्वशासन की अवधारणा को सरकार से मुक्ति के संदर्भ में देखते थे। आज जिस अधिकतम शासन और न्यूनतम सरकार की बात की जाती है, उसकी नींव विनोबा की दूरदर्शी सोच में पहले से ही दिखाई देती है। विनोबा ने न केवल सर्वोदय़ के सिद्दांत की व्याखया की अपितु अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में इसे साकार करने के लिये अथक शारीरिक और मानसिक श्रम भी किया। हजारों किलोमीटर की देशव्यापी पदयात्रा करके उन्होने जमींदारों, भू स्वामियों का सत्याग्रह के माध्यम से ह्रदय परिवर्तन किया और वंचितों, भूमिहीन मजदूरों, दलितों को उनका मालिकना हक दिलाया। भूमि वितरण के इस सुधारवादी प्रकिया के दौरान उन्होने “सबै भूमि गोपाल की” का नारा देकर इसे एक सामुदायिक कार्यक्रम के तौर पर विकसित भी किया।
विनोबा का आर्थिक एवं सामाजिक दर्शन सर्वोदयी समाज के निर्माण के लिये तीन प्रकार के विकेंद्रीकरण मुख्य रूप से आवश्यक मानते थे- सत्ता का विकेंद्रीकरण, आर्थिक तंत्र का विकेंद्रीकरण और ज्ञान का विकेंद्रीकरण। शासन के विकेंद्रीकरण का अर्थ है “लोगों के हाथों में स्वयं का शासन और समाज के हितों के लिये सांमुदायिक योजना बनाना, आर्थिक विकेंद्रीकरण से आश्य ग्राम आधारित कुटीर और लघु उद्दोगों को गांवों में विकसित करना और ज्ञान के विकेंद्रीकरण का मतलब है नवाचार और मानव कल्याणकारी तकनीक को गांवों तक पहुंचाना। ग्राम विश्वविदयालयों की स्थापना एक सामुदायिक योजना के अन्तर्गत करना। इन तीन घटकों के विकेंद्रीकरण के माध्यम से ही एक अहिंसक और शांतिपूर्ण समाज की रचना की जा सकती है। किंतु खेद का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इन तीनों ही घटकों का केंद्रीयक्रत रुप भारतीय समाज पर जबरन थोप दिया गया।
भूंमंडलीकरण के दौर में आवश्यकता इस बात है कि विनोबा जैसे मनीषियों के सामाजिक एवं आर्थिक चिंतन का न केवल गहन अध्धयन किया जाय अपितु सामाज में व्यापत हिंसा, असामानता, गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं के निराकरण के लिये उनका युद्द स्तर पर प्रय़ोग भी किया जाय। इस कार्य के लिये न केवल शासन, संगठन और विधायी शक्तियों को बल्कि जनमानस को भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। विनोबा के पावन विचारों को लोगों के मन तक पहुंचाना होगा, तभी हम इस अहिंसक क्रांतिकारी युगपुरुष के प्रति सच्ची श्रदांजलि व्यक्त कर पायेंगे और उनके जय जगत का सपना भी पूरा होगा।