रघु ठाकुर
दिल्ली। भारत सरकार अब एक देश एक चुनाव के कानून बनाने के लिये लगभग तैयार दिखती है। सरकार ने संसद के इस सत्र में बिल पेश कर दिया है और जेपीसी के गठन की घोषणा कर दी गयी है। श्री रामनाथ कोविंद कमेटी ने भी अपनी सिफ ारिशें सरकार को सौंप दी है। हालांकि सरकार द्वारा बनायी गयी ऐसी समितियां सरकारों के लक्ष्य का मार्ग प्रशस्त करने का ही माध्यम होती है। लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी और व्यक्तिगत तौर पर मैं तो चुनाव सुधार एवं एक देश एक चुनाव की बात को 1980 से ही उठाता रहा हूं। यहां तक कि मैंने 80 और 90 के दशक में विभिन्न राजनीतिक दलों का समर्थन भी जुटाने का प्रयास किया था। चुनाव सुधार को लेकर एक बैठक में भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे शामिल हुये और उन्होंने समर्थन भी व्यक्त किया था।
लगभग 90 के दशक में चुनाव सुधार को लेकर दिल्ली में भी कई आयोजन किये गये थे, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और वर्तमान राष्ट्रीय इंदिरा गांधी कला केंद्र के अध्यक्ष राम बहादुर राय आदि शामिल हुये थे, तथा एक प्रस्ताव तैयार कर हम लोगों ने केंद्र सरकार, चुनाव आयोग और अन्य को पहुंचाया था। श्री रामनाथ कोविंद कमेटी ने जो सिफ ारिशेें भेजी हैं उनके साथ लिखी अपनी टिप्पणी में उन राजनीतिक दलों का जिक्र किया है, जिन्होंने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। अखबारों के सूचना के अनुसार एनडीए के सहयोगी राजनीतिक दलों के अलावा 34 दलों ने उनकी समिति के समक्ष समर्थन किया है। मुझे जानकारी नहीं है कि उनके 34 राजनीतिक दलों की सूची में कौन-कौन दल शामिल है। यद्यपि मैंने लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी की तरफ से एक देश एक चुनाव की परिकल्पना का प्रस्ताव भेजा था। जो लोग एक देश एक चुनाव का विरोध कर रहे हैं और उसे लोकतंत्र के खिलाफ बता रहे हैं, यह भी गलत है और उनका विरोध भी केवल राजनीतिक है। 1967 तक देश में लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ हुये हैं। 1969 में जब कांग्रेस पार्टी का बंटवारा इंडिकेट और सिंडिकेट में हुआ। एक कांग्रेस तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कांग्रेस बनी, जिसे कांग्रेस आई कहा गया। दूसरा धड़ा कांग्रेस संगठन का था जिसे कांग्रेस संगठन कहा गया, उसके बाद पहली बार देश में अलग-अलग चुनाव की प्रथा प्रारंभ हुयी। सबसे पहले इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी के संसदीय बोर्ड द्वारा राष्ट्रपति पद के स्वीकृत प्रत्याशी स्वर्गीय नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ स्वर्गीय वी.वी. गिरी को गैरदलीय प्रत्याशी के रूप में खड़ा किया। जिस संसदीय बोर्ड की बैठक में नीलम संजीव रेड्डी के नाम की घोषणा हुयी थ, उसमें स्वयं इंदिरा गांधी मौजूद थीं, शायद बहुमत को देखकर उन्होंने कोई विरोध दर्ज नहीं कराया तथा मुक समर्थन किया, परंतु बाद में प्रधानमंत्री पद और निरंकुश सत्ता के विरुद्ध उसे समझाकर कांग्रेस में विरोध कराया और वी.वी. गिरी को राष्ट्रपति चुनाव लड़ा कर जिताया था। कांग्रेस पार्टी में सत्ता के विद्रोह की यह शायद पहली शुरुआत थी और जिसे स्वत: पार्टी के प्रधानमंत्री ने किया था। श्री वी.वी. गिरी की जीत के बाद इंदिरा गांधी जी का आत्मविश्वास बढ़ा और जन समर्थन सिद्ध हुआ। संसद के बाहर 1970 में तत्कालीन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का जो विशाल प्रदर्शन हुआ था, जिसमें पुलिस ने भारी लाठी चार्ज किया, जार्ज फ र्नांडीस जो मंच पर भाषण दे रहे थे उनके सर को फ ोड़ा गया। राज नारायण को पुलिस ने मंच से नीचे गिराया था और अनेक लोग घायल हुये थे। उस समय इंदिरा गांधी का संसद में अकेले बहुमत नहीं था और स्वर्गीय मोरारजी देसाई एवं अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने पुलिस लाठी चार्ज में सने खून के कपड़े संसद में पेश किये थे, शायद उसी दिन श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार गिर जाती परंतु कम्युनिस्ट पार्टी ने उनका समर्थन किया और सरकार बचायी। इस घटना के बाद श्रीमती गांधी ने 1971 में संसद को अवधि पूर्ण होने के एक वर्ष पूर्व भंग कर और चुनाव कराने की घोषणा की। स्वाभाविक था कि, तत्कालीन राष्ट्रपति जो श्रीमती इंदिरा गांधी के कृपा से अधिकृत कांग्रेस के प्रत्याशी को हराकर राष्ट्रपति चुने गये थे, उन्होंने श्रीमती गांधी के प्रस्ताव को स्वीकार किया। इस चुनाव में श्रीमती गांधी के साथ कम्युनिस्ट पार्टी शामिल थी। श्रीमती गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और विशाल बहुमत से चुनाव जीतकर आईं और यहीं से देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग होने की शुरुआत हुयी। विधानसभाओं के चुनाव 1972 में हुये और यह क्रम आपातकाल में और बढ़ा दिया गया, जब 1976 में श्रीमती गांधी ने संसद की अवधि को 5 साल से 2 वर्ष आगे बढ़ाने का निर्णय किया। जबकि जो लोकसभा के चुनाव संविधान के तहत 5 वर्ष के अनुसार होने थे, तथा बाद में लगभग 6 वर्ष के बाद 1977 में कराये गये। 1977 के चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी की हार हुयी और जनता पार्टी की जीत हुयी। जीत के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। हालांकि वह सरकार भी राजनीतिक भूल की थी और जो विधानसभाओं के चुनाव आठ या नौ महीने बाद होने थे, जिन राज्यों में कॉग्रेंस का शासन था, उन्हें समय से पूर्व भंग कर मध्यावधि चुनाव कराये। एक देश एक चुनाव हर प्रकार से उचित है, संवैधानिक भी है और व्यावहारिक भी है। आज चुनाव बहुत खर्चीले हैं और चुनाव के खर्चे एक संसदीय क्षेत्र के लिये मीडिया से प्राप्त सुचना के अनुसार 60000 करोड़ रू. तक पहुंच जाते हैं, जो राजनीतिक दल और प्रत्याशी अपना खर्च करते हैं वह अलग है। दूसरा, बार-बार चुनाव होने से आचार संहिता लगती है और सारे सरकारी कार्य ठप हो जाते हैं। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक स्थाई घटना सी बन गयी है, फि र इसके बाद नगर पालिका, नगर परिषद और पंचायत आदि के चुनाव का सिलसिला लगातार चलता रहता है। इसमें हमारा प्रस्ताव वर्तमान भाजपा सरकार के प्रस्ताव से अलग है, हमने प्रस्ताव किया कि-
1. देश में दो माह 5 वर्षीय चुनाव के लिये तय किये जायें और इनमें पंचायत से लेकर संसद तक के सारे चुनाव एक साथ हों। यह आसानी से संभव है और अगर सरकारें यह निर्णय करेंगी तो न केवल मत प्रतिशत बढ़ेगा बल्कि चुनाव में हो रही धंाधलियों में भी कमी आयेगी। क्योंकि जब पंचायत के पंच तक के चुनाव साथ होंगे तो ग्रामीण अंचलों के मतदाता भी शामिल होंगे, इससे चुनाव के खर्च भी कम हो जायेंगे और बार-बार चुनाव की आचार संहिता के नाम पर समय की बर्बादी जो होती है वह भी रुक जायेगी। दलों के चुनावी खर्चे भी कम हो जायेंगे। चंदे के नाम पर होने वाला राजनीतिक भ्रष्टाचार यदि समाप्त नहीं होगा तो भी वह सिकुड़ जायेगा।
2. हमने यह भी सुझाव दिया था कि चुनाव सुधार में व्यापक दृष्टि भी रखनी चाहिये, इसमें कुछ और भी सुधार होना चाहिये जैसे कि-
क. एक व्यकित एक स्थान से चुनाव लड़े, यह कानून बने।
ख. जो व्यक्ति जिस पद पर निर्वाचित होता है वह 5 वर्ष की अवधि तक दूसरा चुनाव नहीं लड़ेगा।
ग. आज जो जितना बड़ा नेता होता है वह कई जगह से चुनाव लड़ता है और जीतने के बाद त्याग पत्र देकर देश पर बोझ डालता है।
घ. अगर दल बदल या मृत्यु के चलते कोई स्थान रिक्त होता है तो जिस दल का प्रत्याशी उस क्षेत्र से चुनाव जीता हो, उस दल से नाम लेकर उसे नामित किया जाये ताकि मध्यावधि चुनाव न हो।
ङ. अगर दल बदल या किन्हीं कारणों से कोई सरकार गिरती है तो सदनों को भंग करने के बजाय राष्ट्रपति या राज्यपाल विधायिका में दलीय प्रतिनिधित्व की संख्या के आधार पर राष्ट्रीय मंत्रिमंडल का गठन करें, जो शेष अवधि तक काम करें।
च. समूचा चुनाव का खर्च चुनाव आयोग उठाये, प्रत्याशियों का जीवन परिचय, घोषणा पत्र, मतदाता परिचय पत्र आदि चुनाव आयोग द्वारा बंटवाया जाये एवं सार्वजनिक सभा के आयोजन भी चुनाव आयोग द्वारा हों। यदि यह होगा तो सभी दलों के नेताओं का तुलनात्मक अध्ययन का अवसर मतदाता को मिलेगा और खर्च भी रुकेगा। एक प्रत्याशी को चुनाव आयोग द्वारा दो या तीन गाड़ी दी जाये, बकाया सब बंद किया जाये।
छ. सभी राजनीतिक दलों को मीडिया, टी.वी. एवं अखबार पर अपनी-अपनी बात करने का चुनाव आयोग समय तय करें, ताकि कमजोर और गरीब दलों एवं प्रत्याशियों की राय भी लोगों तक पहुंच सकें। वैसे भी संविधान द्वारा दिये गये समता के अधिकार में समान चुनाव लडऩे का अधिकार होना चाहिये।
झ. ई-वोटिंग और घर पर मतदान को बढ़ावा दिया जाये इससे चुनाव भी आसान होगा और मत प्रतिशत भी बढ़ेगा। मेरी राय में तो देश की जनमत को वास्तविक अभिव्यक्ति के लिये मौलिक संशोधन होना चाहिए कि- देश में दलों के मत प्रतिशत के हिसाब से विधायकों में हिस्सेदारी मिले, यानि किसी राजनीतिक दल को देश में एक प्रतिशत भी मत मिलता है तो उसे अपने अनुपात में प्रतिनिधित्व मिले, यह लोकतांत्रिक भी होगा और सामूहिक अभिव्यक्ति भी होगी। परंतु वर्तमान भाजपा सरकार अपनी राजनीतिक उद्देश्य के लिये लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव एक साथ कराना चाहती है, इससे आगे नहीं जाना चाहती है, यह निर्णय एक देश एक चुनाव के लिए अधूरा होगा।