सियासी फासलों का खेल


लखनऊ। जहां फैसले नहीं होते, वहां सियासी होते हैं फासले। इन्हीं फैसलों के फासले गांधी जयंती के अवसर पर तब टकराए जब धर्मशाला में केंद्रीय सडक़ एवं परिवहन राज्यमंत्री हर्ष मल्होत्रा और इसके बरअक्स हरियाणा चुनाव में हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने एक दूसरे की पोल खोली। अपनी बरवाला जनसभा में सुक्खू ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हिमाचल की आर्थिक स्थिति पर शुरू की गई चर्चा पर स्पष्ट किया कि केंद्र ने प्राकृतिक आपदा पर जिस राज्य को फूटी कौड़ी नहीं दी, वहां असल में फैसलों का नहीं, फासलों का खेल है। यह जाहिर है कि डबल इंजन सरकारों की वकालत जब से हिमाचल में ढह गई, दिल्ली की निगाह प्रदेश को नजर अंदाज कर रही है। दूसरी ओर गांधी जयंती के ही दिन धर्मशाला पधारे केंद्रीय मंत्री हर्ष मल्होत्रा के पिटारे से भी फासलों का जिक्र निकला।

पठानकोट-मंडी फोरलेन परियोजना में हो रही देरी पर कांगड़ा व मंडी के बीच दूरी कम नहीं हो रही, तो फासला मिटाने को निर्णायक कौन होगा ? इतना ही नहीं, केंद्रीय मंत्री ने केंद्रीय विश्वविद्यालय के मुख्यालय धर्मशाला के प्रस्तावित कैंपस से देहरा परिसर में चल रहे निर्माण की दूरी पर प्रश्न उठाए, तो सारा पाठ्यक्रम सामने आ गया। जदरांगल परिसर सियासी फासलों का ऐसा उदाहरण है जो केवल एक पक्ष या एक सरकार नहीं, बल्कि राजनीतिक चरित्र का अति निर्लज्ज चेहरा है। यह कहानी है, चेहरे और चरित्र के बीच बंटती सियासत की और विद्वेष की भावना में जीत और हार का चित्रण भी। अबकी केंद्रीय मंत्री मल्होत्रा पूछ रहे हैं क्योंकि पूछना आसान है, लेकिन यह दास्तान कई केंद्रीय मंत्रियों और हिमाचल के मंत्रियों व मुख्यमंत्रियों की है जो जदरांगल परिसर को खारिज करने की परिपाटी में प्रेम कु मार धूमल से शुरू होकर सुक्खू तक पहुंच जाती है। ऐसा भी नहीं कि संस्थान को गैरों ने चोट पहुंचाई, बल्कि जब किशन कपूर मंत्री व स्थानीय विधायक थे तो उन्होंने ही सर्वप्रथम ‘दो इंच जमीन नहीं’ का नारा देकर राजनीति को नचाया था। हैं कसूरवार इस प्रांगण में बहुत,तू तो बस इक मोहरा है। प्रश्न उठते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने देहरा को हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की वजह से तरजीह दी या अब वर्तमान मुख्यमंत्री का ‘सब तेरा’ का वादा देहरा के पक्ष में काम कर रहा है। यह इसलिए भी कि धर्मशाला उपचुनाव में मुख्यमंत्री ने आचार संहिता के बाद जरदांगल को मोहलत में गारंटी दी थी। मल्होत्रा पूछ रहे हैं, तो यह भी बता दें कि पूरे खेल में अनुराग ठाकुर, स्मृति इरानी व जयराम ठाकु र की भूमिका कैसी रही। ऐसे में फासले मापने या गिनाने से क्या फर्क पड़ेगा। कम से कम मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह को स्थिति स्पष्ट करके कह देना चाहिए कि वह दो साल की उपलब्धियों में जदरांगल परिसर की बजाय देहरा की जमीन पर झंडे गाडऩा चाहते हैं। बेहतर होगा यहां के हिस्से में आए ढाई सौ करोड़ भी देहरा परिसर को रवाना किए जाएं ताकि कम से कम संस्थान अपनी आवारगी से तो बच जाए। रही बात जदरांगल की जमीन को लेकर, तो बेहतर यह होगा कि वहां पूर्व प्रस्तावित आई. टी. पार्क बना दिया जाए। आश्चर्य यह है कि हिमाचल की सबसे कठोर परीक्षाएं देकर भी केंद्रीय विश्वविद्यालय का जदरांगल परिसर फेल किया जाता रहा और आज भी हो रहा है। मामला यहां तक विकराल है कि देहरा की सियासी गोद में आश्रय लेने वाले पूर्व मंत्री रविंद्र सिंह रवि ने इस संस्थान की पैरवी में धर्मशाला और इसकी संभावना को ही लांछित कर दिया। तब किशन कपूर के कारण या हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की वजह से जदरांगल अभिशप्त हुआ या अब कांग्रेस से छिटके और भाजपा में अटके विधायक सुधीर शर्मा के कारण यह परिसर लटक गया, शायद ही भोली, लेकिन आंदोलनरत जनता तथा राजनीतिक वादों पर विश्वास करने वाले लोग कभी समझ पाएंगे। सियासत के फासले चंद मीलों के नहीं, युगों-युगों को बर्बाद कर देते हैं, कांगड़ा तेरी यही कहानी है।


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