विशेष: क्या पंडित दीनदयाल उपाध्याय का आर्थिक दर्शन गांधीवाद के निकट है ?


जनसंघ के स्थापक और भारत में ‘एकात्म मानववाद‘ की अवधारणा को विकसित करने वाले पंडित दीन दयाल के विचारों और लेखों पर विगत कई वर्षों काफी शोध हुए हैं। ऐसे समय में जब देश एक हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी सरकार है, दीनदयाल के विचारों पर चिंतन , मनन और लेखन होना स्वाभाविक है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में दीनदयाल चेयर पीठों का भी गठन हुआ है। दीनदयाल जी के विचारों पर किये गए ये शोध उन्हेँ उच्च कोटि का चिंतक, विचारक और गांधीवादी समाजवाद का प्रणेता बताते हैं। निःसंदेह दीनदयाल जी अपनी हिदुंत्व वादी विचारधारा के गहरे अद्ध्येत्ता थे, किन्तु उनकी आर्थिक दृष्टि से गांधीवादी को जोड़ना एक बहुत बड़ी वैचारिक भूल है।

वर्ष १९५८ में दीनदयाल जी ने अपनी पुस्तक ‘भारत की अर्थ नीति’ विकास की दशा में भारत के तत्कालीन आर्थिक विचारों पर एक समग्र चिंतन किया है। आर्थिक समस्याओं और समाधानों को रेखांकित करती हुयी ये पुस्तक वास्तव में दीनदयाल के राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार है, जो उन्होंने संघ की पत्रिकाओं में लिखे हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक में अर्थ चिंतन, भारतीय संस्कृति में अर्थ, आधारभूत आर्थिक लक्ष्य, कृषि और उद्योग, योजनाओं की भूमिका, उत्पादन की सीमा, साध्य साधन विवेक, मानव और मशीन, न्यूनंतम उपभोग, और पश्चिम के अर्थशास्त्र की अनुकूलता और विकेन्द्रीकरण जैसे विषयों पर राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य में विमर्श किया है।

उपाध्याय जी अपने आर्थिक दर्शन को एकात्म मानववाद से जोड़ कर देखते हैं और अंततः ‘अंत्योदय’ का नारा देते हैं। धीरे धीरे वे अपने दर्शन में एकात्म मानवतावादी वैचारिक क्रांति सूत्र डाल देते हैं। वे इस क्रांति के लिए गांधीवादी अवधाराणाओं का सहारा लेते हैं, जिसमें वे लिखते हैं ‘अर्थव्यवस्था सदैव राष्ट्रीय जीवन के अनुकूल होनी चाहिये। भरण, पोषण, जीवन के विकास, राष्ट्र की धारणा व हित के लिये जिन मौलिक साधनों की आवश्यकता होती है, उनका उत्पादन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिये। पाश्चात्य चिंतन इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति को अच्छा समझता है।

इसमें मर्यादा का कोई महत्व नहीं होता। उत्पादन सामग्री के लिये बाजार ढूंढना या पैदा करना अर्थनीति का प्रमुख अंग है।‘ अपनी एकात्म मानववाद की वैचारिक क्रांति में वे गांधी के ग्राम स्वराज, मशीनीकरण का विरोध, स्वालम्बी समाज, लोकतंत्र की प्रतिष्ठा, स्व की पहचान, और इच्छाओं की न्यूनता को स्थान देते हैं। किन्तु दीनंदयाल के आर्थिक चिंतन में इतनी सारी गांधी की रचनात्मक अवधारणाएं होने के बाद भी उनकी ‘एकात्म मानववाद‘ की क्रांति गांधी की सर्वोदयी क्रांति से भिन्न है। इसका कारण दीनदयाल जी के चिन्तन का वो वैचारिक आधार है, जो समन्वयकारी और अहिंसक न होकर विभाजनकारी और धर्मान्ध है।

गांधी की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में जहां स्वदेशी और विकेन्द्रीकरण, धार्मिक वैमनस्य और संप्रदायकिता के उन्मूलन की बात करते हैं, जिसका आधार सत्याग्रह है, वहीं दूसरी ओर दीनदयाल जी धर्म निरपेक्षता का विरोध करते हैं और ‘मुस्लिमों‘ को एक समस्या मानते हैं। इसलिए दीनदयाल जी का एकात्म मानववादी दर्शन गांधी की अहिंसक स्वराज की अवधाराणाओं कोसों दूर चला जाता है। स्वयं दीनदयाल जी ने गांधीवादी, साम्यवाद और सर्वोदयवाद को राष्ट्र की अखंडता के लिए खतरा बताया था। उन्होंने लिखा था कि, ‘आजादी के बाद सरकार, राजनीतिक पार्टियों और लोगों को कई महत्वपूर्ण समस्याओं का सामना करना पड़ा, लेकिन मुस्लिम समस्या इनमें सबसे पुरानी, सबसे जटिल है और नये-नये रूपों में उपस्थित होती रहती है।

विगत 1200 सालों से इस समस्या से हम जूझ रहे हैं।’ मुस्लिम समस्या पर उनका यह कथन उनकी विचारधारा और गांधी की आर्थिक विचारधारा में अंतर करने के लिए सही अर्थों में स्पष्टीकरण देता है।’ धर्म निरपेक्षता पर दीनदयाल जी का मत था कि, ‘भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित करने से भारत की आत्मा पर हमला हुआ है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में तो कठिनाइयों का पहाड़ खड़ा रहता है। हालांकि रावण के लंकास्थित धर्मविहीन राज्य में बहुत सारा सोना था, मगर वहां राम राज्य नहीं था। दीनदयाल जी ने अपनी पुस्तक के आरम्भिक अध्याय में गांधीवाद और साम्यवाद की आलोचना भी की है।

गांधी सनातनी हिन्दू होने पर गर्व करते थे किंतु उन्होने कभी भी इसे साम्प्रादायिक नहीं होने दिया। उनके आर्थिक कार्यों की रचनात्मकता में ये एक महत्वपूर्ण तत्व है, शायद इसी कारण से विनोबा ने उनकी परम्परा को विस्तार देते हुए ‘गीता सार’ के साथ ही साथ ‘कुरान‘ पर भी एक पुस्तक लिखी थी। स्पष्ट है कि गांधीवाद के लिए धर्मनिरपेक्षता महत्वपूर्ण है। गांधी के लिए जहां आर्थिक समता के प्रश्न में एकता, सामाजिक समरसता और सांप्रदायिक सौहार्द एक अनिवार्य तत्व है, वहीं उपाध्याय जी के लिए एकता की अवधारणा केवल हिन्दू राष्ट्र की स्थापना से संबंधित है।

वे लिखते हैं कि, ‘अगर हम एकता चाहते हैं, तो हम निश्चित ही भारतीय राष्ट्रवाद को समझना होगा, जो हिंदू राष्ट्रवाद है और भारतीय संस्कृति हिंदू संस्कृति है’। स्पष्ट है कि गांधीवाद के लिए धर्मनिरपेक्षता महत्वपूर्ण है। दीनदयाल ने गांधी की स्वदेशी की जिस अवधारणा का पूरक विस्तार किया, वहां पर गहरा वैचारिक अंतर् है। मतलब गांधी की स्वदेशी की अवधारणा में सत्याग्रह, न्यासिता, अपरिग्रह और विकेन्द्रीकरण साथ साथ चलते हैं, किन्तु दीनदयाल जी ग्राम उद्योगों और कृषि विकास की बात में सत्याग्रह को स्थान नहीं देते हैं।

गांधीवाद से अलग होते हुए भी, दीनदयाल के आर्थिक चिंतन को सिरे से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। उनके ‘एकात्म मानववाद’ और राष्ट्र को केवल भूमि का टुकड़ा न मानने की बात भारत की ‘राष्ट्रीयता’ के संदर्भ में कुछ हद तक सही भी है। आजादी के बाद जो दक्षिणपंथ हाशिये पर था, और राष्ट्रीयता का विचार केवल जनसंघ की वैचारिक बहसों और पाञ्जन्य, राष्ट्रधर्म जैसी पत्रिकाओं तक सीमित था अब वो जनमानस तक पहुंच चुका है। इसके उलट प्रगतिशील वामपंथ विचार केवल कुछ बुद्धजीवियों के विमर्श तक सीमित है। इसका कारण कहीं न कहीं, संघ की अनुशासनात्मक शैली है। जिसकी नींव दीनदयाल और श्यामप्रसाद मुखर्जी ने बहुत पहले डाल दे थी।

किन्तु उनकी शैली और कार्य पर गांधीवादियों का सदा विरोध रहा है, ये विडम्बना है कि राजनीतिक शास्त्र के पंडित गांधी के ‘अंतिम जन ‘ और ‘ग्राम स्वराज’ की समानता दीनदयाल के ‘अंत्योदय’ और ‘एकात्म मानवाद’ से करते हैं, जो कि सरासर निराधार है। जिस विचाधारा के दीनदयाल पोषक थे, उसके बारे में कभी विनोबा ने कहा था, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की और हमारी कार्यप्रणाली में हमेशा विरोध रहा है। जब हम जेल में जाते थे, उस वक्त उसकी नीति फौज में, पुलिस में दाखिल होने की थी। जहाँ हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा खड़ा होने की संभावना होती, वहाँ ये पहुँच जाते। उस वक्त की सरकार इन सब बातों को अपने फ़ायदे की बात समझती थी। इसलिए उसने भी उनको उत्तेजन दिया, नतीजा हमको भुगतना पड़ रहा है।’

लेखक: – डा. विजय श्रीवास्तव (सहायक आचार्य, अर्थशास्त्र विभाग, लवली प्रोफेशनल विश्वविद्यालय)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)


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