पांच राज्यों के चुनाव परिणाम : पराजय के लिये दिल्ली में बैठे आलाकमान है जिम्मेदार !


       

रघु ठाकुर

नई दिल्ली। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं और आम चर्चा तीन राज्यों के चुनाव परिणामों पर ज्यादा हो रही है। मिजोरम एक छोटा राज्य है और तेलंगाना राज्य भी भारत के उत्तरी और मध्य क्षेत्रों में विशेष चर्चा का विषय नही रहा है। हो सकता है कि हिन्दी भाषी मानस के लिये तेलगुवासी राज्य उतना महत्वपूर्ण नजऱ न आता हो। यद्यपि राजनैतिक संकेत मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के काफ़ी हद तक समान है। राजस्थान के बारे में यह आम चर्चा रही है कि वहां हर 5 साल में सरकार बदल जाती है। हालांकि कुछ लोग आश्वस्त थे कि यह परंपरा इस बार टूट जायेगी हालांकि उनकी यह आशा टूट गयी। इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक गहलोत एक गंभीर राजनेता माने जाते हैं और आमतौर पर उन्होंने कोई हल्की बयानबाजी कभी नहीं की। परन्तु कांग्रेस की जो स्थाई परंपरा रही है कि कांग्रेस का शीर्ष स्वत: हर राज्य में दो या उससे अधिक गुट बनाता है फि र उन्हें आपस में लड़ाता है ताकि शीर्ष को कभी कोई चुनौती न मिले। अशोक गहलोत की हार उसी दिन निश्चित हो गयी थी जब उन्होंने अपने आला कमान के खिलाफ राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर पर्चा भरा था और फि र आला कमान ने उन्हें अपने हथकंडों के माध्यम से चुनाव के मैदान से बाहर होने का खेल खेला था। सचिन पायलट के पीछे भी आला कमान का ही हाथ था। छत्तीसगढ़ में भी भूपेश बघेल और श्री टी.एस. सिंह देव के मध्य कटपुतली की लड़ाई बनाने के पीछे भी आलाकमान का हाथ था।

 

कांग्रेस आला कमान चुनाव की यह पंरपरा रही है कि एक तरफ तो वे कुछ ज्ञात-अज्ञात कारणों से मुख्यमंत्रियों को पांच साल का मुक्त राज का ठेका देते हैं, और दूसरी तरफ उन्हें नियमित दरबार में हाजिर होने के लिये कोई एक प्रतिद्वंदी खड़ा कर उसे हवा देते रहते हैं। हालांकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय के पीछे और भी कारण बताये जाते हैं। बात जो भी हो,कांग्रेस अपने पतन के लिये खुद जिम्मेदार है। उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां भी लोकसभा चुनाव फिर विधान सभा चुनाव है और पांच राज्यों के चुनावी परिणाम का पूरा असर यहां भी देखने को मिलेगा। दिल्ली से चलाये जाने वाले रिमोट कंट्रोल को सोचना होगा कि मुक्त राज का ठेका देने की परंपरा बंद करें नहीं तो यूपी में भी लोग यही कहेंगे कि कांगे्रसी अपनी हार के लिये खुद जिम्मेदार हैं। देखा जाये तो पांच वजह मुख्य दिखते हैं जो कांग्रेस की हार की वजह मानी जा सकती है। 1- कुछ चापलूस मंत्रियों और अपने गुटीय लोगों को बढ़ावा देने के लिये क्षेत्र बदलने की स्वीकृति और जीतने की संभावना वाले विधायकों का टिकिट काटना। जिन-जिन मंत्रियों के क्षेत्र बदले और विधायकों के टिकट काटे गये, टिकट काट कर अन्य को दिये गये, वहां पर अधिकांश स्थानों पर कांग्रेस हारी। 2- भ्रष्ट और चापलूस मंत्रियों की चापलूसी के जाल में फं सकर मुख्यमंत्री ने स्वत: अपनी जडं़े कमजोर की। 3. मुख्यमंत्री का घमण्ड और उन पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने भी लोगों के मन में एक मूक आक्रोश पैदा किया था जो मीडिया के प्रचार में ऊपर नहीं दिखता था पर अंदर से असरदायक था। 4.आदिवासियों की समस्या के प्रति मुख्यमंत्री गंभीर नहीं थे। यहां तक कि जिन मामलों को वह निजी तौर पर जानते थे, उन मामलों पर भी उन्होंने राजनैतिक कारणों से हल नहीं निकाला। 5.कांग्रेस के आला कमान ने पी.एल. पूनियां को छत्तीसगढ़ के प्रभार से हटाकर कु. शैलजा को प्रभारी बनाया, परन्तु छत्तीसगढ़ और कार्यकर्ताओं को जिस गहराई के साथ श्री पूनियां ने संपर्क किया था वह नहीं हो सका।

मध्यप्रदेश के चुनाव परिणाम भी बहुतो की अपेक्षाओं के विपरीत थे। हालांकि मेरे स्वयं के आंकलन के विपरीत नहीं है। अनेकों पत्रकारों मित्रों से बातचीत में मैंने कहा था कि मध्य प्रदेश कांग्रेस पार्टी स्वत: अपना समर्थन प्रतिदिन कम कर रही है। कमलनाथ का बड़बोलापन और असंतुलित भाषा तथा अन्य कांग्रेस के परिजनों द्वारा असंतुलित और अमर्यादित बयानों ने भी कांग्रेस को नीचे लाने में भूमिका निभायी। इसके अलावा एक बड़ा कारण यह भी था कि कांग्रेस ने कर्नाटक की जीत के बाद यह मान लिया, बस अब उनका प्रधानमंत्री बनने वाला है। और उन्होंने वैचारिक और क्षेत्रीय दलों को साथ लेने के बजाय उन्हें समाप्त करने या लाचार करने की रणनीति अपनायी, जिसका प्रभाव उल्टा होना ही था। छोटे और वैचारिक दलों का लगभग ढाई से तीन प्रतिशत मत जो कांग्रेस की संख्या बढ़ा सकता था, वह बिखर गया। यहां तक की कांग्रेस नेतृत्व ने अपने घमण्ड में इण्डिया गठबंधन को भी निपटा दिया। यद्यपि इंडिया गठबंधन कोई नीतिगत गठबंधन नहीं है पर वह भी टूट गया और इसके भी गंभीर परिणाम भविष्य में कांग्रेस और उसके आला कमान को मिल सकते हैं। कांग्रेस ने भाजपा के मुकाबले के लिये भाजपा की नकल करना शुरू कर दिया। वे सारे काम जो भाजपा करती थी, कांग्रेस ने शुरू कर दिया। मध्य प्रदेश में तो ऐसा लगता था जैसे चुनाव कांग्रेस भाजपा के बीच नहीं बल्कि दो बजरंगबलियों के बीच हो रहा है। किसके हनुमान की मूर्ति कितनी बड़ी है, किसका कितना भक्तिभाव है, यही कसौटी थी। यानि अंतत: कांग्रेस ने भाजपा की राजनैतिक लाइन को ही मजबूत किया इससे जहां एक तरफ हिन्दू मतदाताओं का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में हुआ।

मुस्लिम मतदाता भी अपने मजहबी मानस से बाहर नहीं निकलते हैं।अब लगभग स्थिति यह हो गयी है कि दो ध्रुवीकरण (धार्मिक) प्रभावित हो रहे हैं। इसका फि लहाल तो ज्यादा दुष्प्रभाव हम समाजवादियों पर हो रहा है जो किसी कटघरे में नहीं है न हिन्दू के न मुसलमान के…। लाड़ली बहना और मुख्यमंत्री की लगभग तीन लाख करोड़ की घोषणाओं ने भी चुनाव पर प्रभाव डाला और भाजपा के मतों में अच्छा खासा इजाफ ा किया। कांग्रेस की आलोचना से मतदाता भयभीत थे। कहीं कांग्रेस के आने से छोटी-मोटी लाभ की यह घोषणायें बंद न हो जाय और इसलिये उन्होंने भाजपा को वोट दिया। अपनी असलियत को छिपाने और हार को संदिग्ध बनाने की परंपरा के अनुसार कुछ कांग्रेस के नेताओं ने ई.वी.एम. की चर्चा फिर शुरू कर दी। जहंा कंाग्रेस या अन्य प्रतिपक्ष दल जीत जाता है, वहां ई.वी.एम. का चुनाव ठीक रहता है। कांग्रेस पार्टी का आला कमान वैश्वीकरण की संतानों से बड़ा प्रभावित है। एनजीओ और सिविल सोसायटी जो की एक प्रकार से वैतनिक और ऐलीट (श्रेष्ठी) वर्ग के पर्याय हैं ,को कांग्रेस का आला कमान बहुत प्रभावी मानता है, जबकि जमीनी हकीकत कुछ और ही है। देशी-विदेशी पैसे से चलने वाले आंदोलन जनता के नही होते बल्कि केवल प्रचार तंत्र और काल्पनिक मुद्दों के होते हैं।

साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से एक ऐसा प्रयास शुरू हुआ है जिसका उद्देश्य केवल सत्ता पाना है। इस नकली बहस ने असली सवालों और जनता के मुद्दों को पीछे छोड़ दिया है। तथा आम आदमी के सामने विकल्प के नाम पर कुंआ और खाई खोद दी। उनसे पूछा जाता कि आप कुंए में गिरना चाहते हैं या खाई में? धर्म निरपेक्षता का असली अर्थ और भावना की चतुराई के साथ किसी न किसी प्रकार से साम्प्रदायिकता को ढका जा रहा है। आमजन को भी अब सोचना होगा कि कब तक सरकार के सामने कटोरा लेकर खड़े रहोगे? क्या समता का समाज और व्यवस्था बनाने पर विचार करोगे? कारपोरेट के पैसे या भ्रष्ट राजनीति के पैसे से कब तक मतदाता बिकते रहेंगे ? क्या इससे लोकतंत्र कोई बेहतर स्वरूप में आ सकता है ?


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