क्या हमारी न्याय व्यवस्था में सभी को सुलभ तरीके से मिल रहा है न्याय ?


     

     रघु ठाकुर

नई दिल्ली। 26 नवंबर संविधान दिवस के दिन सर्वोच्च न्यायालय की ओर से संविधान दिवस का आयोजन किया गया था। इस आयोजन को परंपरा के अनुसार राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू ने संबोधित किया और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने भी समारोह को संबोधित किया। राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में देश में लोगों को त्वरित न्याय और गरीबों को न्याय मिल सके यह अपेक्षा सर्वोच्च न्यायालय से की। अपने संबोधन में और लगभग राष्ट्रपति उत्तर में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे गरीबों के लिये हमेशा खुले हैं और वह जब चाहें तब आ सकते हैं। राष्ट आदिवासी समाज से हैं और एक सामान्य परिवार से आयी हैं अत: उनकी चिंता और पीड़ा आम लोगों के प्रति स्वाभाविक है। वे अपनी चिंता को पहले भी न्यायाधीशों के सम्मेलन में व्यक्त कर चुकी हैं, और अपने अनुभव भी उन्होंने कई बार न्यायाधीशों से साझा किये हैं। मुख्य न्यायाधीश के द्वारा दिये गये उत्तर का परीक्षण जरूरी है…। क्या सचमुच में सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के दरवाजे आम आदमियों के लिये खुले हैं ? क्या गरीब और सामान्य व्यक्ति को न्याय पालिका और विशेष कर शीर्ष न्याय पालिका में जाकर न्याय पाना आसान है ?

उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के मामलों की सुनवाई के लिये कोई समय सीमा नहीं बांधी गयी है। वह कह सकते हैं कि इसका विधान में कोई प्रावधान नहीं है ,परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने विधान और प्रावधानों से हटकर भी अपनी जरूरत और सुविधा के अनुसार आदेश दिये या नियम बनाये हैं। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के चयन के लिये कॉलेजियम का कोई संवैधानिक, वैधानिक प्रावधान नहीं है,ना किसी कानून में और ना ही संविधान में परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उसे स्वत: बनाया और उसे संविधान के समान सुरक्षा दी। सर्वोच्च न्यायालय में और अधीनस्थ न्यायालयों में करोड़ों मामले लंबित हैं। स्वत: न्यायाधीश इस पर अपनी चिन्ता व्यक्त कर चुके हैं, परंतु यह मामले लंबित क्यों है, इस पर कोई ठोस या निर्णायक कदम नहीं उठाये गये हैं और ना ही इस बाबत कोई नीति संबंधी निर्णय किया है। आखिर मामले लंबित क्यों होते हैं? इसकी एक वजह हमारा साक्ष्य अधिनियम भी है जो कई प्रकार की तकनीकी और गैर जरूरी बातों को अनिवार्य बनाता है। अब मान लीजिये की वकील साहिबान और विशेषकर बड़े नामधारी वकील कोर्ट में नहीं आ पा रहे हैं और वह कोर्ट से केस बढ़ाने का अनुरोध करते हैं तो विधान में ऐसी कोई बाध्यता न्याय पालिका की नहीं है कि वह इस अनुरोध को स्वीकार करें। न्यायाधीश भी वकील है और दस्तावेज़ तथा पक्षकारों की बातों को सुनकर कानून सम्मत निर्णय दे सकते हैं। होना तो यही चाहिये कि यदि कोई वकील किसी मुकदमे में वकालत करने की सहमति देता है और उसके लिये फ ीस भी लेता है तो उसे समय पर उपस्थित होना अनिवार्य किया जाये। एक ही वकील इतने मामले क्यों ले कि वह किसी कोर्ट में ही ना पहुंच पाये। यह एक प्रकार से विधिक नैतिकता के खिलाफ है और अदालतों को चाहिये कि बगैर वकील की उपस्थिति के सुनवायी तथा और निर्णय दें। साथ ही वकील के ऊपर पक्षकार को फ ीस वापसी का आदेश भी दें। यह भी अक्सर देखा गया है कि वकील अपने अनुसार निर्णय पाने के लिये अनुकूल जज की बेंच बनने का इंतजार करते हैं और तब तक किसी न किसी बहाने केस बढ़ाने का उपक्रम करते रहते हैं। एक गैर जरूरी न्यायालय व्यवस्था वकीलों को लेकर यह भी है कि पक्षकार अपने वकील के काम से यदि संतुष्ट नहीं है तो उसे अन्य वकील रखने के लिये अपने पूर्व वकील का अनापत्ति पत्र लेना आवश्यक है और यदि पक्षकार का पुराना वकील उसे यह पत्र नहीं दे तो वह अपना मुकदमा नये वकील से नहीं करवा सकता। क्या यह साधारण व्यक्ति को परेशानी में डालने वाली व्यवस्था नहीं है ? यह भी तथ्य है कि न्यायाधीश महोदय की अपनी राय ही विधान की व्याख्या बन जाती है। जबकि विधान और नजीरों में न्यायिक आदेशों की मर्यादा और सीमा बनाई जानी चाहिये। मुझे स्मरण है की कुछ दिनों पहले मीडिया में यह समाचार आया था की एक जज साहब ने किसी छेड़छाड़ के अपराधी को यह आदेश दिया कि वह पीडि़त लड़की से राखी बंधवाये और इस आधार पर उसे जमानत दे दी।

इसी प्रकार एक प्रकरण में एक जज साहब ने अपराधी को कुछ दिनों तक कहीं जाकर सेवा करने का आदेश दिया और इस आधार पर जमानत दे दी। क्या ऐसे आदेश मनमानी नहीं है? और न्याय पालिका को हास्यापद नहीं बनाते? इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज साहब को दिल्ली से इलाहाबाद आने के लिये रेल में बर्थ नहीं मिली तो उन्होंने दिल्ली स्टेशन पर ही अदालत लगाकर सुनवाई शुरू कर दी और रेलवे के अधिकारियों को तलब किया। क्या यह आचरण न्याय पालिका के अनुकूल है या फि र राजतंत्र है? सर्वोच्च न्यायालय में अगर कोई सामान्य व्यक्ति याचिका दायर करना चाहे तो उसके लिये यह आसान काम नहीं है। याचिका पेश करने के लिये अब हजारों रुपए का शुल्क देना पड़ता है। दिल्ली के एक बड़े वकील को अगर अपने मुकदमें में लगाना हो तो उनकी फ ीस लाखों रुपए प्रति सुनवाई की होती है। कौन गरीब आदमी इतनी फ ीस दे सकता है और कौन गरीब दिल्ली के इन बड़े वकीलों को अपने केस के लिये लगा सकता है। सच्चाई तो यह है कि, न्यायपालिका के दरवाजे कहने के लिये तो सबके लिये खुले हैं पर वास्तव में वे केवल अमीरों और ताकतवर लोगों के लिये ही खुले हैं। बड़े-बड़े वकीलों की निरर्थक शब्दावलियों पर अदालतों में घंटों का समय लगाया जाता है पर गरीब की बात सुनने का उनके पास समय नहीं होता। न्यायपालिका ने स्वयं अपने आप को ऐसे किलो में बंद कर लिया है कि आम आदमी उसके दरवाजे तक पहुंच ही नहीं सकता। बताने को दरवाजे सबके लिये खुले हैं पर वास्तव में वे चंद लोगों के लिये ही खुले हैं।

आजकल एक और प्रवृत्ति न्याय पालिका में आयी है कि वह प्रतिदिन उपदेश बांटते हैं परंतु आदेश नहीं देते। उनकी टिप्पणियां मीडिया में सुर्खियां बटोरती है परंतु उन पर कोई अमल नहीं होता, क्योंकि वह बाध्यकारी कानूनी आदेश नहीं होते। न्याय पालिका कोई उपदेशक संतों की जमात नहीं है जो उपदेश प्रसारित करें। न्याय पालिका का काम न्यायिक आदेश देना और उनका क्रियान्वयन कराना है। अपने काम की मात्रा बढ़ाने और बताने के लिये उन्होंने कुछ नये-नये असंवैधानिक, अवैधानिक और विषमतापूर्ण तरीके इजाद कर लिये हैं जैसे:- 1. चेंबर हियरिंग आजकल उच्च न्याय पालिका में बहुत सारे प्रकरण जो कमजोर लोगों के होते हैं या जिनमें बड़े नामधारी वकील नहीं होते या जिन पर मीडिया का ध्यान नहीं होता उन्हें बगैर किसी सुनवाई के चेंबर हियरिंग के नाम पर निपटा दिया जाता है । क्या चेंबर हियरिंग करना न्याय पालिका का स्वत: संविधान का उल्लंघन नहीं है ? 2. निर्णय न करना या टालना सामान्य मामलों में और सामान्य लोगों के लिये न्याय पालिका उस व्यक्ति की शरण में भेज देती है जिससे प्रताडि़त होकर वह न्याय पालिका की शरण में जाता है और इस प्रकार प्रकरण सालों साल लंबित रहते हैं। 3. कोर्ट की अवमानना का कानून है परंतु हजारों न्यायिक आदेश पड़े हैं जिनका क्रियान्वयन नहीं हुआ और पीडि़त पक्ष न्याय पालिका की अवमानना की कार्यवाही चाहता है परंतु शायद ही आज तक किसी बड़े अधिकारी या मंत्री को न्यायिक आदेश की अवहेलना के लिये दंडित किया गया हो। अगर कभी ऐसा निर्णायक अवसर आ भी जाये तो अधिकारी कोर्ट में जाकर क्षमा याचना कर लेते हैं और वह माफ भी कर दिये जाते हैं। क्या प्रशासनिक अपराध, अपराध नहीं है? 4. आजकल सरकारों की सुविधा के लिये नया चलन शुरू हुआ है कि अपने विरोधियों को दबाने के लिये सत्ता पक्ष, ईडी, सी.बी.आई. आदि संस्थाओं का इस्तेमाल करता है और उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है फि र सालों तक चार्ज शीट पेश नहीं होती और न्यायपालिका उनका समय बढ़ाती रहती है और संबंधितों को जमानत भी नहीं देती। क्या किसी व्यक्ति को इस तरह से जेलों में महीनों, सालों तक रखना न्याय संगत है ? ऐसे बहुत सारे बिंदु हो सकते हैं ,परंतु मैं इस बात के साथ अंत करना चाहूंगा कि न्याय पालिका को स्वत: भी अपना आत्मावलोकन करना चाहिये कि क्या वे अपना संवैधानिक दायित्व पूरा कर रहे हैं। 5. हाल ही में न्याय पालिका में एक और प्रवृत्ति उभरी है कि वह सेवानिवृत्ति के बाद सत्ता संस्थानों में सुविधाभोगी पद हासिल कर रहे हैं। इससे न्याय पालिका की साख आम लोगों में बुरी तरह गिर रही है। और आम लोगों का न्याय पालिका पर से विश्वास कम हो रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधीश का दर्जा, राज्यसभा के सदस्य या राज्यपाल या सरकार के द्वारा बनाई गयी ट्रिब्युनलों के पदों से कहीं ऊंचा होता है । 65 वर्ष की उम्र तक, माननीय न्यायाधीश महोदयों की पारिवारिक जिम्मेदारियां भी पूरी हो जाती है और इसके बाद उनके लिये पद या पैसा महत्वहीन है । यदि वह क्रियाशील ही रहना चाहते हैं तो उसके लिये कई सार्वजनिक और नैतिक रास्ते हो सकते हैं। वह कानून के छात्रों का नि: शुल्क मार्गदर्शन कर सकते हैं जिससे गरीबों के प्रतिभावान बच्चे भी योग्य बन सकेगें । वे और भी अनेक रास्तों से अपने सामाजिक सरोकारों को जिंदा रख सकते हैं ,जिससे न्याय पालिका के प्रति आम लोगों के मन में सम्मान बढ़ेगा और आस्था भी। वरना न्याय पालिका के प्रति अविश्वास अंतत: लोकतांत्रिक प्रणाली को भी क्षति पहुंचायेगा । न्यायपालिका के न्यायाधीशों की अपनी सेवानिवृत्ति के बाद के कार्यों के दो और तरीके सामने आये हैं । एक है – ट्रिब्यूनल सिस्टम तथा दूसरा आर्बिट्रेशन सिस्टम। 75-80 साल के जज साहिवान ट्रिब्यूनल में जाते हैं और पैसे के लिये सत्ता प्रतिष्ठानों का हथियार बन जाते हैं। इसी तरह आर्वीटेशन में पंच बनकर पैसा कमाते हैं। क्या यह सब न्याय पालिका के लिये उचित है? इस पर भी सुप्रीम कोर्ट को विचार करना चाहिये तथा अपनी मर्यादा स्वयं तय करना चाहिये।


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