एक कर्ज, दो मौतें, दो सगे भाइयों की खुदकुशी और परिवार में मातम के साथ बिखराव! यही कोरोना काल और तालाबंदी के कारण कारोबार की दुर्दशा का सारांश है। आत्महत्या नियति बन गयी लगती है! सोचिये, मानसिक तनाव और अवसाद के कुछ पल कैसे रहे होंगे, जब व्यक्ति असहाय महसूस करता है और फांसी का फंदा लगाकर खुद की हत्या कर लेता है। आत्महत्या के सिलसिले इन पांच महीनों के दौरान बहुत बढ़े हैं। दिल्ली के प्रख्यात चांदनी चौक बाजार में जिस कारोबार का तीन मंजिला शोरूम हो, सोने-चांदी के आभूषणों का कारोबार हो और 60-70 लाख रुपए का कर्ज हो, लेकिन फिर भी दो भाइयों ने दुकान में ही खुदकुशी कर ली। ऐसा व्यावसायिक कर्ज चुकाया जा सकता था। बैंक ऐसे कारोबार की मदद कर सकता था। संपत्ति बेचकर कर्ज का भुगतान किया जा सकता था, लेकिन दोनों कारोबारी भाइयों को आत्महत्या करने का फैसला करना पड़ा। उत्तर प्रदेश के एक अन्य मामले में कर्ज के कारण ही मां-बाप और उनकी दो संतानों ने खुदकुशी कर ली। शायद उन्हें इसी फैसले में राहत मिली होगी! ऐसे असंख्य केस अखबारों के कोनों में छपते रहे हैं, जिनकी नौकरी छिन गयी या रोजगार-व्यवसाय बंद करना पड़ा, नतीजतन उन्होंने आत्महत्या का रास्ता अख्तियार किया।
जीवन को खत्म करने के ऐसे फैसलों का विश्लेषण करें, तो गंभीर और धमकीदार दबावों के सच सामने आने लगते हैं। यकीनन यह सामान्य स्थिति नहीं है। कोरोना वायरस ‘वैश्विक महामारी’ है। उसने विश्व की अर्थव्यवस्था, बाजार, उद्योग और आम आदमी की कमर तोड़ दी है, सांसों को अवरुद्ध कर दिया है। भारत में तो सामाजिक सुरक्षा के संवैधानिक प्रावधान ही नहीं हैं। सरकार ने गरीबी-रेखा के नीचे या गरीब महिलाओं के जन-धन खातों में 500 रुपए की दो किश्तें डाली हैं। यह आर्थिक मदद थी या कोई खैरात, भिक्षा! केंद्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज घोषित किया था। उसे क्रियान्वित भी किया गया होगा! उसके अलावा सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों, जिनमें 11 करोड़ से अधिक कर्मचारी हैं और इस तरह वे ‘रोटी’ का बंदोबस्त करते हैं, के लिये भी 3.5 लाख करोड़ रुपये की घोषणा अलग से की गयी। दावा किया गया कि बैंक ऐसे कर्ज बिना गारंटी के देंगे। यानी सरकार ही कर्जदार की गारंटी होगी। इन आर्थिक पैकेजों के बावजूद छोटे उद्योगों की बहाली क्यों नहीं हुयी है? अभी एक सर्वे रपट सामने आयी है कि इन उद्योगों में कार्यरत करीब चार करोड़ कर्मचारी ‘बेरोजगार’ हो सकते हैं। यानी नौकरियां या ठेके समाप्त किये जा सकते हैं। यह बेहद भयानक आंकड़ा है। कोई भी देश इसे झेल नहीं सकता। अराजकता फैल सकती है। कल्पना करें कि यदि बेरोजगारी इस कदर बढ़ती जायेगी, तो कितनी और आत्महत्याएं हो सकती हैं? और यह कब तक जारी रह सकता है? अंतरराष्टï्रीय श्रम संगठन का आकलन भी आया है कि भारत में बेरोजगारी-दर 32 फीसदी के करीब या उससे भी ज्यादा हो सकती है। यह बेरोजगारी 40 साल की उम्र तक के कर्मचारी वर्ग में 50 फीसदी से भी ज्यादा हो सकती है। लेकिन बेरोजगारी और कामबंदी पर देश में कोई सार्थक और निर्णायक बहस नहीं हो पा रही है। यह दुर्भाग्य भी है और विडंबना भी! हमारा मानना है कि जो व्यक्ति बेरोजगार होकर पत्थर तोड़ रहा है, खेतों में काम कर रहा है, मजदूरी करने को विवश है अथवा सरकारी विभाग के नियुक्ति-पत्र का इंतजार कर रहा है, तो ये तमाम जानकारियां प्रधानमंत्री कार्यालय को भी होंगी! जाहिर है कि प्रधानमंत्री को भी ब्रीफ किया जाता होगा! तो फिर 20 लाख करोड़ रुपए का आवंटन या बैंक कर्ज की व्यवस्था इतनी आसान और लचीली क्यों नहीं की गयी कि कर्जदार के भीतर आत्महत्या की सोच ही न उभर पाये? सरकारी प्रवक्ताओं की दलीलें हैं कि फसलों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है, दूध का उत्पादन विश्वस्तरीय और रिकॉर्ड का है, विदेशी मुद्रा के निवेश ने नये रिकॉर्ड स्थापित किये हैं, लाखों घरों में मुफ्त गैस सिलेंडर उपलब्ध कराये गये हैं, किसानों में हजारों करोड़ की सम्मान राशि बांटी गयी है आदि। लेकिन यह क्यों नहीं बताते कि दूध 10-15 रुपए प्रति लीटर बिकने की स्थितियां पैदा हुयीं, तो किसानों ने सडक़ों पर ही दूध बिखेर दिया? अंतत: यह दावा भी प्रवक्ता करते सुने जा सकते हैं कि कुछ ही महीनों में अर्थ व्यवस्था पटरी पर लौट आयेगी। ऐसी संभावनाएं खुदकुशी करने वालों को क्यों नहीं दिखतीं ?